ढूंढो.. ढूंढो.. रे.. सीना..

पहले सोचा ही था, अब लगता हैकि बदलाव करना ही पड़ेगा। परिवर्तन कर भी दिया तो कोई नई बात नहीं है। ऐसा होना स्वाभाविक है। प्रकृति का नियम है। जो ठस गया-समझो ठस गया। इससे पहले भी कई बदलाव हो चुके हैं। मूल गीत में ना सही, उनकी पैरोडी तो बन सकती है। दाफड़ पे दाफड़ झेल रहा मानखा आखिर क्या करेगा, और किसी पर बस चले या ना चले-गीत की पैरोडी तो गुनगुना ही सकता है।

वहां था ढूंढो.. ढूढो रे साजना.. मेरे कान का बाला। हमने बालो को बाळों का बास भेज दिया और सीने की तलाश में जुट गए। ढूंढो.. ढूंढो.. रे.. सीना-ढूंढो.. छप्पन इंच का सीना..। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

‘सीना का जिक्र होते ही समझने वाले समझ गए होंगे कि बहाव किस की ओर जाने वाला है। कई लोग इशारों-इशारों में समझ जाते हैं। कई लोगों को समझाना पड़ता है। कई लोगों को चाहे कितना ही समझा द्यो। कितना ही समझा ल्यो। एक्सट्रा- क्लास ले ल्यो। ट्यूशन दिलवा द्यो। उनकी समझ में नहीं आणा हैं, तो नही आणा है। कई लोगों को सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहने में मजा आता है। कौन किस केटेगरी में आता है, इसका फैसला उन्हीं पे छोड़ दिया जाए तो ज्यादा बेहतर रहेगा। हम आप को धोखा दे सकते हैं। आप उनको अंधेरे में रख सकते हैं।

वो इन के साथ फरेब कर सकते है। ये उनके साथ छल कर सकते हैं। एक-दूसरे-तीसरे-चौथे के साथ मिलकर छलिया मेरा नाम.. छलना मेरा काम.. के सुर फोड़ सकते हैं मगर हम अपने आप को धोखा नही दे सकते। हम अपने अंदर बिराजे परमात्मा के साथ चारसौबीसी नही कर सकते। इन सब के बावजूद यदि किसी को ‘सीना की जगह ‘सोना नजर आए तो उसका कोई इलाज नहीं।

सीना तो सीना-सोना तो सोना में भी खासा अंतर है। एक सोना वो जो गरीबों की पहुंच से बाहर सा होता दिखाई दे रहा है। नाथिए की बहन-बेटियां कारों-कोठियों वाली आंटीजी को सोने के गहनों से लदकद देखकर खुश हो लेती हैं। दूसरा सोना बोले तो नींद लेना। जिस प्रकार हजारी सोना हरेक के नसीब में नही उसी प्रकार नींद वाला सोना भी सभी के नसीब में नहीं। सोने के गहनों से लॉकर भरने वाले रात को करवटें बदलते हैं। उन्हें गद्देदार बिस्तर पर भी नींद नही आती जबकि दिन भर का थका हारा नाथिया रूखी-सूखी खाकर टूटी खाट और गूदड़ी में भी खर्राटें खींचता है। ऐसी चैन की नींद तोला-दो तोला सोना देकर भी नहीं ली जा सकती।

बात करें सीने की तो प्यारे दरजी ने जीवणों जित्ते सीवणे। इस सीने को सीवनकला से जोड़ा गया है। पेंट-बुस्केट सीना। चोला-पायजामा सीना। चड्डी-बंडी से लेकर सूट सीना। सिलाई और सिलना का अपभ्रंश सीना। इसका उपयोग वस्त्रों से लेकर जूते-मोजडिय़ों तक में हो सकता है। चमड़ा उद्योग भी सीने-सिलने पे टिका हुआ। मगर हथाईबाज जिस सीने को ढूंढकर लाने की बात कर रहे हैं वो शायद थोथे भाषणों और रैलियों के भीड़-भड़क्के में खो गया लगता है। उस बखत तो खूब तालिएं कूटी थी। तालियां कूटने वालों में हम-आप भी शामिल रहे होंगे। कई ने सीटियां बजाई। कई ने सुर लहरियां बिखेरी। आज उन्हीं को उस सीने की तलाश है, जो उस बखत 56 इंच का होने का दम भरते थे। आज पता नहीं कितने इंच का रह गया। पहले मिले तो सही-नाप तोल बाद में हो जाएगा।

छप्पन इंच का सीना ढूंढने की जरूरत इसलिए आन पड़ी कि जनता महंगाई के कारण मर-खप रही है और सीनेदार कही नजर नही आ रहे। उनके चंगु-मंगु भी मुंह पर अंगुली बगल में हाथ डाल कर बैठे हैं। इंसान की जिंदगी सस्ती हो गई है और महंगाई बढती जा रही है। बहन-बेटियों की इज्जत सस्ती होती जा रही है और महंगाई रोकने वाले कही नजर नही आ रहे। किसी के मांजणेें में धूड़ टेकणा सस्ता हो रहा है और महंगाई टेकरी चढती जा रही है। चावल-भात महंगा। आटा-दाल महंगे। मिर्च-मसाले महंगे। कपड़े-लत्ते महंगे जूते-जुराब महंगे। शिक्षा-चिकित्सा महंगी। दवा-दारू महंगी। पहले चाराने-आठाने-रूपए दो रूपए के चूंटिए भर-भर के पेटरोल सौ रूपए के पार पहुंचा दिया। उसके दाफड़ अभी लालचुट्ट थे कि रसोई गैस के सिलेंडर में विस्फोट-दर-विस्फोट हो गए।

पांच-पच्चीस-पचास बढाते-बढाते आज नौ सौ के करीब पहुंच गए। आने वाले दिनों में सिलेंडर हजारी हो सकता है।
इन तमाम गवाहों और सबूतों को देखते हुए लोगबाग उन छप्पन इंच के सीने वालों की तलाश कर रहे हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े बोल बोले थे। भाषणों की घुट्टी पिलाई थी। मंचों पर ताल ठोकी थी। हवाई खाब दिखाए थे। तभी तो साजन और बालो की जगह ढूंढो.. ढूंढो रे सीना.. के सुर फोडऩे की जरूरत आन पड़ी है। इसमें आम लोगों के सुर भी शामिल।

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