गधों पर आंच

किसे पता था कि पिछली खाई खुटेगी नहीं और अगली तैयार हो जाएगी। अभी तो पिछली लिखाई की ”स्याही भी नहीं सूखी और नया प्लेट फार्म तैयार हो गया। तो उसका क्या। जब लिखना है तो लिखना है। लिखना हमारा काम है। लिखना हमारा कर्म है। लिखना हमारा दायित्व है। हम लिखेंगे तभी तो भाईसेण पढ़ेंगे। हो सकता है पढऩे के बाद कुछ जागृति आ जाए और गधों की धाक बनी रहे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ।

आगे-आगे हो चुका है। आईंदा भी होता रहेगा। ताल ठोक के हुआ। ताल ठोक के हो रहा है और ताल ठोक के होगा। अपने यहां एक कहावत आम है। कहावतें तो भतेरी है। असंख्य है। अगणित है। एक-एक को गिनना संभव नहीं है। कोई अगर पूछे कि भारत में अब तक कितनी कहावतों का लोकार्पण हुआ। कब-कब हुआ और किस ने किया तो यकीन मानिए परीक्षार्थी परचा छोड़ के रूम के बाहर आ जाएंगे। उनके हाथों की आठों अंगुलियां और दोनों अंगूठे उस कथित शिक्षाशास्त्री की ओर उठेंगी जिसने सवाल पेपर में पिरोए। वो और उसके पुरखे इस सवाल का जवाब ना दे पाएंगे। गूगल-सूगल सब फैल।

हम तो कहें कि ”क्या आप जानते है के लिखाकड़ों। खोजियों। ढूंढाकड़ों और कीमियों को इस पर काम शुरू कर देना चाहिए। वो इस बात की खोज करें कि अमुक कहावत किसने घड़ी। किस प्रसंग पे घड़ी और कब घड़ी। हो सकता है इसके सकारात्मक नतीजे सामने आ जाएं। ऐसा संभव नहीं है, मगर कोशिश करने में क्या हर्ज है। इस पर दो धाराएं। दो पक्ष होना भी कोई नया नहीं है। कई बार तो तीन-चार पक्षकार खड़े दिखाई पड़ जाते हैं। बड़े-सयाने कहते हैं कि सफलता मिलना या मिलना दूसरी बात है। पहली बात ये कि हमें अपने प्रयासों में कोर कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए।

बड़ों-सयानों का दूसरा गुट कहता है कि जब कांच की तरह साफ दिखाई दे रहा है कि इन तिलों में तेल नहीं है। साफ दिख रहा है कि दीवारों से सिर टकराने से खुदी का नुकसान होना है तो खामखा माथाफोड़ी क्यूं करनी। बूंद-बूंद से घड़ा भरा और किसी कुुचमादी लड़के ने कांकरा मारके घड़ा फोड़ दिया। घड़ा भी गया और मेहनत भी।

हथाईबाजों का कहना है कि इसका मतलब यह नहीं कि हम कोशिश करना छोड़ दें। उसका मतलब यह नहीं कि हम प्रयास करना छोड़ दें। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। एक बार असफल हुए तो क्या हुआ दूसरी बार फिर प्रयास करेंगे। तीसरी-चौथी बार करेंगे। उम्मीद है सीमा-रेखा के झगड़े में अंतिम जीत कोशिश-प्रयास करने वालों की होगी। सफलता का यह टोटका चींटी से सीखा जा सकता है। ट्राय अगेन…ट्राय अगेन…। उसे कहावत से जोड़े तो स्याही सूखी नहीं पर ”सिर मुंडवाते ही ओले पड़े का मुलम्मा चढा नजर आएगा।

हथाईबाजों ने पिछले दिनों ”सस्ता इंसान-महंगे गधे शीर्षक से छपी हथाई में गधों का जोरदार महिमामंडन किया था। इस जीव का भले ही लोगबाग मजाक उड़ाते रहे होंगे मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गधा मेहनती जीव है। देश-दुनिया में ऐसा कोई चौपाया नहीं जो मेहनत के मामले में गधा प्रजाति की बाराबरी कर सके। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि गधा जमात इंसान जमात की सच्ची साथी है।

इंसान की तुलना गधों से की जाती रही है। मामला मेहनत का हो या दिमागी डिब्बा गोल का। गधों को याद किया जाता है। कोई बंदा सुबह से लेकर शाम तक किसी हाड़तोड़ काम में खपा रहे तो उसकी जुबान से यहीं निकलेगा ”लगा हूं गधे की तरह। गधा मतलब मेहनती। गधा माने सहनशील। गधा माने इंसान का सच्चा मित्र। इसके बावजूद हंसी का पात्र लेकिन उसकी अहमियत को कोई नकार नहीं सकता तभी तो पिछली हथाई की स्याही सूखने से पहले ”गधर्व गाथा फिर शुरू हो गई।

हथाईबाजों ने एक अखबार में गधों पर छपी एक चिंताजनक रिपोर्ट बांची। उसके मुजब राजस्थान में गधों की संख्या में जोरदार गिरावट आ रही है। पहले जहां सौ गधे हुआ करते थे आज उनकी संख्या इकहत्तर रह गई है। उसके माने इकहत्तर परसेंट गिरावट। राज्य में वर्ष 2012 में साढ़े इकियासी हजार के करीब गधे थे जो वर्ष 2019 में साढ़े तेईस हजार के आसपास रह गए। पशुगणना हर सात साल बाद होती है।

आंकड़ों को देखकर वहम होता है कि वर्ष 2019 से लेकर अब तक गधों की संख्या में और ज्यादा गिरावट आई होगी। इस कमी के कुछ कारण भी बताए गए है। जिसमें उनके खाने का खर्च अधिक होना मुख्य है। रिपोर्ट को कोई गंभीरता से ले या ना ले। हथाईबाज तो गंभीर हैं। गधा भाई इसी तरह कम होते रहे तो मेहनत की मिसाल पर आंच आ सकती है। ऐसा ना हो कि आने वाले सालों में गधे तस्वीरों में कैद हो के रह जाएं लिहाजा गधा प्रजाति को समर्थन देने की जरूरत है।