
कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला का जन्म राजस्थान के करौली जिले के मुंडिया गांव में 12 सितंबर 1939 के दिन हुआ था। उनके पिता भारतीय फौज में सिपाही थे। बचपन से ही किरोड़ी सिंह को पढऩे लिखने का शौक था इसलिए उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद शिक्षक के तौर पर काम किया। लेकिन पिता के भारतीय फौज में होने के कारण उनका रुझान फौज के प्रति कुछ ज्यादा ही था। इसलिए उन्होंने शिक्षक की नौकरी छोड़कर सेना में जाने का पक्का मन बना लिया और आखिर में भारतीय सेना में भर्ती हो गए। सेना में भर्ती होने के बाद उन्होंने भारत के दो बड़े युद्ध 1962 के भारत-चीन और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हिस्सा लिया। पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान वे युद्धबंदी बना लिए गये। किरोड़ी सिंह बड़े जांबाज़ सिपाही थे। उन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ सेना में काम किया जिसके चलते उन्हें कर्नल के ओहदे से नवाजा गया। उनकी बहादुरी के कारण उन्हें साथी कमांडो और सीनियर्स उन्हें ‘जिब्राल्टर का चट्टान’ और ‘इंडियन रेम्बो’ के उपनाम से बुलाते थे।
सेना से रिटायर होने के बाद किरोड़ी सिंह राजस्थान वापस आ गए। उन्होंने देखा की राजस्थान के ही मीणा समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया और सरकारी नौकरी में भी उन्हें स्थान दिया गया लेकिन सरकार ने गुर्जर समाज के लिए कोई कदम नही उठाये। गुर्जर समाज के लोगों के लिए उन्होंने लडऩा शुरू किया। गुर्जर समाज के हक़ के लिए उन्होंने कई आंदोलन किये जिसमें रेल रोको आंदोलन, रेल की पटरी के बीच धरना करना प्रमुख थे।
उनका नाम तब प्रसिध्द हुआ जब उन्होंने 3 सितंबर 2006 के दिन अपने समर्थको के साथ करौली के हिण्डोन क़स्बे में दिल्ली-मुंबई रेल मार्ग को पहली बार रोका और सरकार से गुर्जरों को ओबीसी कोटे के तहत 5 प्रतिशत आरक्षण की मांग की।
कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला ही वो नेता थे जो गुर्जर समाज को उनके लोगों के बीच, भरी सभा में पाखंडी कह सकते थे। लंबा वक्त फौज में बिताने वाले कर्नल रिटायर्मेंट के बाद भी ताउम्र एक फौजी की तरह जिए। पहले देश और फिर समाज के लिए उन्होंने खुद को पूरी तरह से झोंक दिया। और एक फौजी की तरह ही गुर्जर आरक्षण को लक्ष्य बनाकर उसे हासिल भी किया। करीब दो दशक तक इसी संघर्ष के बीच उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन कर्नल की रौबदार आवाज और ठेठ देसी अंदाज लोगों को इतना प्रभावित करता था कि जहां भी जाते लोग खींचे चले आते थे। और जब भीड़ जुटती तो फिर चाहे रेल की पटरी हो या सड़क पर धरना, हुजूम लग जाता। उनके धरना-प्रदर्शन और बैठकों में लोग उनकी बातचीत को टकटकी लगा सुनते थे। सभाओं में उनके भाषण सुनकर गुर्जर समाज के लोग घरबार छोड़ उनकी अगुवाई में मरने-मारने को तैयार हो जाते। उनके बोलचाल का एक और खास पहलू था, अंग्रेजी भाषा। वो अपने संवाद में अंग्रेजी जरूर शामिल करते थे। और उसके पीछे भी उनके अपने तर्क थे। कर्नल बैंसला ने ऐसा ही एक तर्क सहजता के साथ मुझसे भी साझा किया था। वही संस्मरण आज याद आ रहा है।
वो जुलाई का महीना था। कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला एक प्रतिभा सम्मान समारोह में शिरकत करने पहुंचे थे। इसी दौरान उनसे मुलाकात हुई। कर्नल बैंसला का व्यक्तित्व जितना रौबदार था, मीडिया के साथ उनके संबंध उतने ही मधुर भी थे। गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान जब पटरी पर उग्र प्रदर्शन हो रहे थे तब भी वो पत्रकारों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहते थे। खैर, आंदोलन में आक्रामक छवि वाले कर्नल पिछले कुछ सालों से समाज सुधारक के तौर पर अपनी पहचान बना चुके थे। यहां भी उन्होंने समाज और सामाजिक लीडर पर ही बात की। किरोड़ी सिंह बैंसला पारस थे, उन्हीं की वजह से गुर्जर समेत एमबीसी वर्ग को आरक्षण मिला । उन्होंने कहा, समाज का लीडर और पारस पत्थर एक जैसे होते हैं।
पारस पत्थर से लोहे को टच कर दो, वो लोहा सोना बन जाएगा। लेकिन वो पारस पत्थर अपने गुणों रखते हुए केवल पत्थर ही कहलाएगा। ऐसे ही सामाजिक लीडर की कद्र तो होती है लेकिन उसके मरने के बाद। ऐसा हुआ भी, आज मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसकी पुष्टि भी कर दी। राजनीतिक वार-पलटवार के दौर के बाद गहलोत ने ट्वीट करते हुए कहा कि कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला जी के निधन का समाचार बेहद दुखद है। गुर्जर आरक्षण आंदोलन के मुखिया के रूप में बैंसला साहब ने एमबीसी वर्ग के आरक्षण के लिए लंबा संघर्ष किया। एमबीसी वर्ग को आज आरक्षण मिल पाया तो अगर किसी एक व्यक्ति को श्रेय जाता है तो वह कर्नल बैसला ही हैं।
मुझे आज भी याद है जब कर्नल बैंसला ने अपने अंग्रेजी में बातचीत को लेकर सीधा-सट्ट जवाब दिया था। एक पत्रकार साथी ने पूछा लिया था, बैंसला जी, आप जब गुर्जर महासभा में भाषण देते हैं या हम जैसे पत्रकारों से अंग्रेजी में बात क्यों करते हैं? जबकि आपके सुनने वाले तो हिंदी भाषी या ग्रामीण लोग ही ज्यादा होते हैं। तब उन्होंने कहा था कि मैं ये चाहता हूं कि समाज के युवा अंग्रेजी सीखें। उन्होंने अपने मन की बात साझा करते हुए कहा कि जब वो स्टूडेंट थे तब उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था कि क्या पढ़ रहे हैं? क्या पढऩा चाहिए? आज वो चाहते हैं कि उनके अनुभवों का फायदा नई पीढ़ी को मिले। वो कहते थे कि जो गलती हमने की वो हमारे बच्चे नहीं करें, ऐसे ही समाज आगे बढ़ेगा।
कुछ साल पहले सालासर बालाजी में एक सभा थी। वहां कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला भी बतौर वक्ता आमंत्रित थे। श्रोताओं में गुर्जर समाज की महिलाएं, बच्चे, बड़े, सभी थे। कर्नल का सुनने के लिए सब टकटकी लगाए बैठे थे। लेकिन जैसे ही बैंसला ने भरी सभा में गुर्जरों को पाखंडी कहा, सब सन्न रह गए। बैंसला ही गुर्जर समाज के एक सर्वमान्य नेता थे जो ऐसी सबके बीच ऐसी खरी-खोटी सुनाने से परहेज नहीं रखते थे। हालांकि, इस पांखडी के पीछे जब बैंसला ने तर्क दिया तो हर कोई उनका मुरीद बन गया। तब बैंसला ने कहा था कि इनकी आमदनी तो है कम लेकिन बड़ा बनने के लिए कर्ज से भी नहीं डरते। और एक बार कर्ज ले लिया तो परिवार तीन पीढ़ी तक उससे उबर नहीं सकता। उन्होंने कहा, शादी-ब्याह में कर्ज लेकर खर्च करना समझदारी नहीं है। उन्होंने यहां अपनी बेटी का उदाहरण भी दिया। कहा, 1987 में मैंने मेरी बेटी (सुनीता बैंसला, आयकर मुख्य आयुक्त) की शादी की थी। तब 1 रुपया दिया था। और शादी में सिर्फ 15 लोगों को निमंत्रण दिया था। जबकि बेटी आईआरएस थी।
बैंसला को आंदोलन क्यों करना पड़ा?
गुर्जर आरक्षण आंदोलन ने 2008 में उग्र रूप धारण कर लिया था। पुलिस फायरिंग में तब गुर्जर समाज के 73 लोगों की जान चली गई थी। आरक्षण के लिए बैंसला आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे। समाज के लोग उनके लिए जान दे रहे थे। इस आंदोलन के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बैंसला ने साफगोई से अपनी बात रखी थी। उन्होंने कहा, मुझे आंदोलन क्यों करना पड़ा? क्योंकि समाज के उत्थान, सामाजिक सुधार के लिए राजनीति करने वालों ने मेरा साथ नहीं दिया। उन्होंने कहा, राजनीति वो चाबी है जिससे सब ताले खुलते हैं। लेकिन जब राजनीति करने वालों में साथ नहीं दिया तो मुझे आंदोलन की राह अपनानी पड़ी।
सेना के बाद आरक्षण की जंग जीत कर समाज के मसीहा बन गए। सेना में एक सैनिक से कर्नल तक के सफर के बाद 2004 में उन्होंने नई जंग शुरू की थी। उनकी यह लड़ाई खुद अपने समाज के लिए थी। समाज उत्थान के लिए उन्होंने गुर्जर आरक्षण आंदोलन की कमान अपने हाथ में ली। और करीब दो दशक तक प्रदेश की सरकारों की नाक में नकेल डालकर रखी। पटरी पर बैठकर आंदोलन करने वाले बैंसला एक फौजी की तरह अडिग रहे। आरक्षण आंदोलन का चेहरा बने कर्नल बैंसला आखिर अपने मकसद में कामयाब हुए। लेकिन महज आरक्षण उनके जीवन की उपलब्धि नहीं थी। बैंसला के प्रयासों के बाद जो बदलाव गुर्जर समाज में आया, शिक्षा में आया वही उनकी असल देन है। कर्नल बैंसला अमूमन कहा करते थे,मेरा सपना है कि मेरे समाज की बेटी कलेक्टर बने। उनके रहते ही उनका ये सपना भी पूरा हुआ, भारतीय प्रशासनिक सेवा हो या फिर राजस्थान प्रशासनिक सेवा गुर्जर समाज के युवा
बेटे-बेटियों ने परचम लहराया है
ये महज कुछ संस्मरण हैं, जिनमें कर्नल बैंसला अमिट छाप छोड़ गए हैं। लेकिन दो दशक पहले के पिछड़े गुर्जर समाज को वो कुरितियों से लडऩे के लिए आइना दिखाकर गए हैं। शिक्षा की अलख जगाकर आगे बढऩे का रास्ता बताकर गए हैं। आरक्षण के जरिए समाज को बरसों की असमानता से आगे बढऩे के अवसरों का द्वार खोलकर गए हैं। भी तो कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला जाने से पहले गुर्जर समाज के मसीहा बन गए थे।
- सम्ब्रत चतुर्वेदी