
हमें क्या पता था कि जगचावे गीत की तर्ज थोड़ी देर के लिए ही सही, बदलनी पड़ जाएगी। बदलाव स्थायी हो, इसकी संभावना कम है। कम क्या तनिक भी नही है। चिन्नी सी भी नहीं। रत्ती भर भी नही। हथाई में उस गीत के मुखड़े को थोड़ी हेर-फेर करके परोस देते हैं, बाद में वापस मूल स्वरूप में लौटा देंगे। हम क्या लौटाएंगे.. अपने आप ही आ जाएगा। हम बिणाव सिणगार बदल के राजी भले ही हो लें.. अरसों-बरसों से जुबान पर छाए गीत की सेहत पे कुछ फरक पडऩे वाला नहीं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
संत-सयाने कहते हैं कि मूल तो मूल ही होता है। मूल के साथ कोई भूल नही हो सकती। मूल की अपनी धार है मूल की अपनी धारा है। जो लोग ब्याज-बट्टे का धंधा करते हैं वो मूल के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। कहा जाता है कि उन्हें मूल से ज्यादा ब्याज-‘सुट्ठा लगता है। यह सिर्फ कहाई है। हकीकत में ऐसा नही है। सच तो यह है कि मूल दूधारू है और ब्याज उसका दूध। कई बार ब्याज के फेर में मूल रकम डूब जाती है। कई की तो डूब गई। कई की फंसी हुई है। कई कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगा रहे हैं।
मूल में कुछ तो है तभी उस पर नामकरण होते रहे हैं। आज-कल वो नाम रखने की परंपरा खल्लास हो गई, वरना एक जमाने में उन का जोरदार रूतबा हुआ करता था। मूलसिंह। मूला राम। मूलशंकर। इन के पीछे का लॉजिक भी धाकड़। रखने वाले कहते थे-ये सिंह का मूल है। ये राम और ये शंकर का मूल है। मूल माने बेसिक। मूल तनखा इत्ती-इत्ता डिए-इत्ता हाउसरेंट। कुल बने इत्ते।
मूल के तार सीधे तौर पे वास्तविक रूप-स्वरूप से जुड़े हुए। इसके पर्यायवाची शब्द भी हो सकते हैं, जिनका उपयोग सुविधा-सहूलियत के अनुसार किया जाता रहा है। आजकल लोगों का झुकाव अपनी सुविधा की ओर ज्यादा होता जा रहा है। हमने भतेरे ऐसे लोग देखे जो खुद के चाराने के लिए अगली पारटी के आठाने का वध कर देते है। अरे भाई, चारानों का दौर गया। भिखारी भी चाराने नही लेते। मगर उनका अपना तर्क। कहते हैं अब तो चवन्नो का समय ही चल रहा है। जहां देखो वहां चवन्ने। जहां नजर डालो वहां चवन्नागिरी। वो भूल जाते है कि चवन्नी हर स्थान पर नही चलती। चवन्नापंथी दो-चार दिन चल जाएगी। जिस दिन हम-आप जैसा सच्चा और खरा कळदार खनक गया, उस दिन चवन्नी का नृत्य समाप्त।
आप ने राजस्थान आवासन मंडल द्वारा बनवाए गए मकान तो देख ही रखे होंगे। मकान बनाने में कैसी सामग्री का उपयोग किया गया। शायद इसकी जानकारी भी होगी। एक कमरे की दीवार पे कील ठोकने का प्रयास करो तो पूरी दीवार का प्लास्टर नीचे। ऐसा हो तो भी घर मालिक लक्की। कई के तो पीछे वाली दीवार का प्लास्टर भी ‘खिर जाता है। यही वजह रही थी हाउसिंग बोर्ड की कॉलोनियों में निन्यानवे फीसदी मकानों का मूल स्वरूप मिट गया। एक प्रतिशत वो मकान, जो खाली पड़़े हैं। मालिक जिस दिन वहा रहने को हुआ, उसका रूप भी बदल जाएगा। लोगों ने कोठिएं तान दी। बहुमंजिला इमारते खड़ी कर दी। अफसर वहा चले जाएं तो हैरत में पड़ जाएंगे। सोचेंगे कि यह हमारे द्वारा बसाया गया इलाका है। हम ने क्या बनाया था-इन्होंने क्या से क्या बना दिया।
कई चीजें कभी नही बदलती। चीजों के माने काइंड्स नहीं और भी कुछ होता है। बहुत कुछ होता है। रीत-रिवाज नही बदलते। परंपराएं नही बदलती। रस्में नही बदलती। सात फेरों को माडाणी आठवें में बदल दो तो बात कुछ और है वरना परंपरा तो सात की ही है। कुछ लोगों के उसूल नही बदलते। भले ही उन की संख्या अंगुलिया पे गिने जित्ती हो, मगर उन्ही के बूते-प्राण जाए पर वचन ना जाए टिका हुआ है। वरना पीठ मुड़ते ही शब्द-बोली-भाषा और हावभाव सब बदल जाते हैं।
पर हथाईबाज जिस बदलाव की बात कर रहे हैं,वो यहीं तक सीमित है। वह भी थोड़ी देर के लिए। वरना काळ्या था-है और रहेगा। हमने उस की जगह ‘कुंवारों और मेळे की जगही वोटों को बिठा दिया तो गीत हो गया-‘कुंवारों कूद पड्यो वोटां में..। राजस्थान का यह काळबेळिया नृत्य-गीत जगचावा है। मूल बोल हैं-‘काळ्यो कूद पड्यो मेळां में..। समय को देखते हुए हमने उसमें बदलाव कर दिया। नगर निगम चुनावों में जोधपुर के दो निगमों में जो अखाड़ची चुनावी ताल ठोक रहे हैं उनमें से उत्तर में 35 और दक्षिण में बीस प्रत्याशी अविवाहित हैं। इनमें कुछ पंजा छाप-कुछ कमल ब्रांड तो कुछ आजादपंथी। शादी के लड्डू खाएंगे तब खाएंगे फिलहाल तो छड़े हैं।
हथाईबाजों ने उन्हीं को देखकर उस गीत के बोल कॉलम तक बदले। बाहर वही रूप-वही स्वरूप। वही बिणाव-वही-सिणगार पर यहां तो ‘कुंवारों कूद पड्यो वोटां में..के सुर ही गूंजेंगे।