
यहां भी दो धाराएं। जहां नजर डालें वहां एक सरीखे मंजर। आखे देश में दो दृश्य। ऐसा नहीं कि नारे किसी विशेष शहर में लग रहे हों। ऐसा भी नहीं कि खोज किसी खास नगर-महानगर या गांव-गुवाड़ी में हो रही हो। चारों ओर दो धाराएं फूटती-बहती दिखाई दे रही हैं। एक में छप्पन इंच के सीने की तलाश और दूसरी में कुछ तो करो सरकार। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
दो का मतलब आमने-सामने नहीं हम साथ-साथ है भी हो सकता है। साथ-साथ के बावजूद-दूरियों का हथलेवा दो से जोड़ा जा सकता है। किसी जमाने में हम दो-हमारे दो परिवार नियोजन एवं परिवार कल्याण का उवाच हुआ करता था। अब उसे भी कुतर दिया गया। हम दो तो यथावत हमारे दो की जगह एक डाल दिया गया। इसके बावजूद कई लोग चार-छह करने से बाज नहीं आ रहे। अखाड़े में दो पहलवान और मैदान में दो टीमें उतरती हैं।
एक की जीत दूसरी और ज्यादा प्रयास करने की तैयारी में। इसका मतलब यह हुआ कि हार का मतलब हताश हो के बैठना नहीं वरन अगली बार के लिए और ज्यादा तैयारी के साथ मैदान में उतरना है। चुनावों में भतेरे प्रत्याशी उतरते है। कई बाद सीधा या त्रिकोणीय मुकाबला बन जाता है। प्रेमी युगल के बीच में कोई आ जाए तो उस पे विलेन का टेग टांग दिया जाता है। रेल की पटरियां साथ-साथ तो रहती है मगर मिल नहीं सकती। एक-दूसरे को झप्पी नहीं दे सकती। सदन में पक्ष-विपक्ष। एक ”हां पक्ष दूसरा ”ना पक्ष। आजकल समाज स्तर पर भी घड़ाबाजी ठाठें मार रही है। एक गुुट फलांचंद सा का, दूसरा ढीमका सिंघ जी का।
कई स्थानों पर तीसरे मोर्चे के प्रयास। लोकतंत्र में द्विदलीय से लेकर त्रिदलीय-चारदलीय और बहुदलीय व्यवस्था चलती आई है और चलती रहणी है। मगर यहां दो धाराओं पे ज्यादा फोकस। तीसरे-चौथे पर चर्चा और कभी। फिलहाल पूरा ध्यान नारे और खोज पर।
हमें याद है वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में ”अबकी बार-मोदी सरकार का नारा खूब प्रचलित हुआ था। वर्ष 2019 के चुनाव में ”फिर मोदी सरकार जोड़ दिया गया। तो पूरा नारा हुआ ”अबकी बार फिर मोदी सरकार। वर्ष 2024 के संसदीय चुनावों में कौन सा नारा घसीटा जाएगा। किस की सरकार बनेगी यह भविष्य की कोख में है। फिलहाल एक नया नारा पूरे देश में जोर शोर से उछल रहा है। ”कुछ तो करो सरकार।
इस नारे में फरियाद है। विनती है। आग्रह है। दबी जुबान में गुस्सा भी है-आक्रोश की आग भी । इस आग का जुड़ाव सीधे तौर पे महंगाई से । पेट्रोल-डीजल के रोजाना रहे दामों पर जनता का गुस्सा दिन-ब दिन बढ़ता जा रहा है। तेल तो आखे देश का तेल निकाल ही रहा था कि रसोई में आग लग गई। एक ओर पेट्रोल-डीजल के दामों को लेकर रोजाना ”चूंटिये। कभी चाराने बढ़ाए-कभी आठाने। चींया-मींया करते करते पेट्रोल सौ के पास हो गया। डीजल सौ का आंकड़ा छूने की तैयारी में। रसोई गैस सिलेंडर ने तो ऐसा ”भचीड़ा मारा कि बजट और ज्यादा गड़बड़ा जाने के पक्के आसार। एक तो लॉकडाउन के कारण पहले से ही पेंट ढ़ीली हो रखी है तिस पे सरकार उसे भी उतारने की फिराक में खड़ी नजर आ रही है। जनता को अच्छे दिनों का सपना दिखाकर भयानकता से सामाना करवाना ठीक नहीं है। कहीं ऐसा ना हो कि वर्ष 2024 में ”अबकी बार पे विचार करना पड़ जाए।
दूसरी धारा तलाश की ओर। नगरों में तलाश। महानगरों में तलाश। शहरों में खोज। तालुका में खोज। गांव-ढाणी और गली-गुबाड़ी तक में तलाश। उस 56 इंच के सीने की जिस की दुहाई देते-देते भाजपा के चंगु-मंगु थका करते थे। घणोइ प_ बजाए। घणीइ फुलफुलियां मारी। जम के गाल बजाए। छप्पन इंच के सीने का राग बहाया। आज वो सीना कहीं नजर नहीं आ रहा। तेल कंपनियों ने 56 इंच के सीने को ”सिकोड़ के रख दिया। फुलाने से भी फूलता नजर नहीं आ रहा है।
इसका मतलब तो यहीं हुआ कि तेल कंपनियों के आगे 56 इंच के सीने वाले लोग बगल में हाथ-मुंह पे उंगली और आंखे झुका कर खड़े है। आखी दुनिया के सामने तो शेर और तेल कंपनियों के सामने ढ़ेर। हैरत और बे शरमाई की बात ये कि इस बारे में हर बड़बोले भाजपाई की जुबान बंद है। निचले लेवल के कार्यकर्ता तो खुद 56 इंच वाले सीने को ढूंढऩे में लगे है। हम-आप भी उसी की तलाश में। किसी को मिल जाए तो बताइयो…।
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