पड़ोसी की कमाई

अपने यहां एक कहावत है-‘किन्नर की कमाई मूंछ मुंडवाई में जाती है। कहावत में सच्चाई होगी तभी तो उस का लोकार्पण किया गया। हम उस पर पाबंदी तो नहीं लगा सकते। अलबत्ता ये तो पूछ सकते हैं कि इस कहावत की घड़ाई के पीछे लॉजिक क्या है। जिज्ञासा के बतौर ही सही, कोई शांत तो करे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

एक कहावत के माने ये नहीं कि इकलौती है वरन ये कि-‘किन्नर और मूंछ वाली कहावत कहावतों के भंडार में से एक है। भंडार भी अकूत। एक दिन में एक का उपयोग वक्त की नजाकत के मुजब करें तो कम से कम आधी सदी निकल सकती है। हिंदी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं में भी कहावतों की भरमार है। कोई पूछे कि मराठी और गुजराती में कौन-कौन सी कहावतें चावी है तो जवाब होगा-पता नहीं।

हां, राजस्थान के बारे में पूछकर देख ल्यो। थप्पियां लगा देंगे। कहावतें तो कहावतें हमारी राजस्थानी में आडियों और ओखाणो का अकूत खजाना है। हो सकता है अन्य भाषा-बोलियां भी कहावत संपन्न हो मगर राजस्थानी भाषा का जवाब नहीं। कहावतों के मामले में राजस्थानी हिंदी से ज्यादा मालामाल हो या ना हो, पर दावा है कि कम भी नहीं। राजस्थानी कहावतों की अहमियत अपनी जगह पर। क्षेत्रीय भाषाओं की अपने स्थान पर और हिंदी भाषा की अपनी जगह पर। किन्नर और मूंछ मुंडाई वाली कहावत उन में से एक।

हथाईबाजों ने मूल कहावत में कुछ सुधार कर परोसा। मूल में ‘किन्नर की जगह ‘हिजड़े था। सदियों पहले उन्हें शिखंडी कहा जाता था। अब इन्हें ‘किन्नर कहा जाता है। ये जमात भी समाज का अंग है। लिहाजा कहावत में तनिक संशोधन करना पड़ा। हम जानते हैं कि हर कहावत के पीछे कोई ना कोई लॉजिक होता है। कहावत की नींव में कटाक्ष रूपी सच्चाई। तभी तो सदियों से बुलंद हैं। हमारी जिज्ञासा ये कि किन्नर की कमाई मूंछ मुंडवाई में कैसे जाती हैं। हम ने देश के किसी नगर-महानगर में ‘किन्नर ब्यूटी पार्लर नहीं देखा। नरों के लिए शानदार सैलूनों की भरमार। नारियों के लिए जानदार पार्लर। किन्नर पार्लर ना देखे-ना सुने। इस के बावजूद वो मूंछ पर कमाई उड़ाने वालो के रूप में बदनाम। किन्नर अपने घर में बैठकर रोजाना सेविंग करें तो भी खरचा ज्यादा से ज्यादा दो-तीन-चार सौ रूपए प्रतिमाह। पर कहावत चल गई। ऐसी चली कि आज भी चल रही है। आगे भी डंके बजते रहणे हैं।

किन्नर ब्यूटी पार्लर जाएं या सैलून में या कि घर में बैठकर रोजाना गालों पे पत्ती फेरे अपन को क्या। कहावत उन पर खरी उतरती हो या नही। पाकिस्तान पर तो एकदम खरी उतरती है। किन्नरों की कमाई मंूछ मुंडवाई में जाती है और पड़ोसी की कमाई आतंक की फैक्ट्री में। अव्वल तो उस की कमाई ज्यादा रही नहीं। होती भी होगी तो हाफिजा, आईएसआई और सेना ‘खोस लेते है। बिचारा यहां-वहां से करजा लेकर काम चलाना चाहता है। वो भी आतंक और आतंकवादियों की भेंट चढ जाता है।

पाकिस्तान दिन-ब-दिन कंगाल होता जा रहा है। भूख वहां। भुखमरी वहां। अशिक्षा वहां। बेरोजगारी वहां। आसमान छूती महंगाई वहां। उस पर तीस हजार अरब विदेशी कर्ज है। हालात ये कि अब उसे कोई भी मुल्क कर्ज देने को तैयार नहीं। कुएं में होगा तो खेळी में आएगा। वहां तो कुएं भी सूख गए। जो करजा ले रखा है उस का ब्याज चुकाने की रकम के भी टोटे पड़ रहे हैं। हालात ये कि खैरात भी नहीं मिल रही। पहले अमेरिका उसके कटोरे में कुछ डाल देता था। चीन भी रहम कर देता। अब वहां के दरवाजे भी बंद हो गए। बांध बनवाने के लिए उसे अपने नागरिकों से चंदा लेना पड रहा है।

तीस हजार अरब की रकम छोटी-मोटी नहीं है। वो विदेशी कर्ज और सहायता का सदुपयोग करता तो कंगाली दस्तक नहीं देती। दिवालियापन दरवाजा नहीं खटखटाता। पहाड़ जैसी रकम से वहां का हाल-हूलिया बदल जाता पर उस ने उन पैसों का दुरूपयोग किया। उन पैसों से आतंक और आतंकवादियों को बढावा दिया। आतंक की फैक्ट्रियां खडी कर दी। भारत के विरूद्ध जहर उगला। भारत में आतंकवाद को बढावा दिया। आज हालात ऐसे कि आखी दुनिया में फजीहत हो रही है। कोई टका देने को तैयार नहीं। तभी तो उस की तुलना किन्नर वाली कहावत से की। किन्नर की कमाई मंूछ मुंडवाई में और पड़ोसी की कमाई आतंकवाद की फैक्ट्री में।