
हमें नहीं पता कि लोग खामखा किसी के फट्टे में टांग क्यूं अड़ाते हैं। वो जाणे और उनकी फटी सूथण जाणे। सूथण में नाड़ा है या पिन से खसोट रखी है, तुम्हें उससे क्या मतलब। वो फटी सूथण पहने या कारी लगी पेंट। तुम कौण होते हो पंचायती करने वाले। इनने राजी खुशी दिया-उनने राजी खुशी लिया। तुम कौण होते तो ‘नितर म्हारौ रूपियो पाछौ दे कहने वाले। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
ऊपर के पेरेग्राफ में वही लिखा जो होता आता है… हो रहा है.. आगे क्या होगा, कोई कुछ कह नहीं सकता। हम पहले आने वाले कल के बारे मे भी दावे कर लिया करते थे। बड्डों-सयानों ने भतेरा समझाया। कहा-इतनी लंबी-लंबी मती फैका करो। कल की बात तो दूर आने वाले पल में क्या से क्या हो जाए, कोई कुछ नही कह सकता। कोई कुछ नही कर सकता। पर हम ठहरे डेढ़ हूशियार। हों या ना हों, समझने में कौन सा पेटरोल खरच होता है। हम अकेले तो ऐसे हैं नहीं। अगणित लोग अपने आप को दो हूशियार समझते हैं, हम तो आंकड़ा डेढ तक ही पहुंचा रहे हैं।
वो कहते हैं ना कि जब तक सच्चाई का सामना ना हो, तब तक लोग हवा में बातें करते रहते हैं। हम पट्ठों में हाथ कूट के आने वाले कल के लिए दावे करते थे। इक्का-दुक्का बार ठोकर भी खाई मगर कुछ समझ में नही आया। कोरोना काल देखा तो अक्ल ठिकाने आ गई। मालिक की मेहर से बचे रह गए वरना कोरोना ने कई हस्तियां मिटा दीं। किस ने सोचा था कि हमें अपने ही घरों में ढाई-तीन महिने कैद रहना पड़ेगा। किसने सोचा था कि आखा देश लॉकडाउन की चपेट में आ जाएगा। समय ने ऐसा पसवाड़ा फेरा कि सारी गलतफहमी निकल गई। अब पालें तो राम दुहाई। भगवान वापस वो सुनहरे दिन ले आए..यही प्रार्थना है।
समाज में बहुसंख्य लोग ऐसे हैं जिन्हे पराई पंचायती करने की लत लगी हुई है। कोई पूछे नहीं..कोई ताछे नहीं..। कोई राय मांगे नहीं.. कोई सलाह लेवे नहीं.. इसके बावजूद-मैं लाडे री भुआ..। ‘ऐसे लोगों को ढूंढने की जरूरत नहीं। कहावत है- एक ढूंढो हजार मिल जाएंगे.. मगर लाडे री भुआ और भूड़ोसा को ढूंढने की भी जरूरत नहीं। ऐसे लोग हर गली में मिल जाएंगे। हर गुवाड़ी में मिल जाएंगे। आस-पड़ोस में मिल जाएंगे। हर घर में मिल जाएंगे। फुरसत मिले तो खुद के भीतर झांकने की कोशिश करना, हो सकता है वहां भी पसरे-लेटे मिल जाएं। कई लोगों को पंचायती करने का शौक है तो कई लोगों का पेशा। वो पंचायती करते हैं.. वो मुद्दे उठाते है.. वो खोद-खोद के सवाल निकालते हैं। मानखा पानी में डूब रहा है और वो माईक मुंह में घुसाकर पूछ रहे हैं-‘आप को कैसा लग रहा है..। कैसा महसूस कर रहे हैं..। ऐसे में अगला कहेगा-‘मजा आ रहा है..ऐसे मजे आप भी उठा के देखिए..।
आप भी उठाइए..। अपने घर-परिवार वालों को भी लाइए..। इस जमात में कौन से लोग आते हैं..बताणे की जरूरत नहीं। ऐसा-वैसा करना उनका पेशा। ऐसा करना उनका काम। ऐसा करना उनकी रोजी-रोटी। इसी चक्कर में राग नितर म्हारो रूपियो पाछो दे.. शुरू हो गया। इस पर हथाईपंथी भी दो पाळों में बंट गए। एक-पाछे दे के पक्ष में। दूसरे-क्यूं दें के समर्थन में।
हथाईबाजों ने ‘चांदी की हांती शीर्षक से छपी पिछली हथाई में एपेक्स बैंक की ओर से सात कलक्टरों सहित चालीस के करीब बड्डे-बड्डे लोगों को पाव-पाव चांदी के सिक्के दिए जाने की चर्चा की थी। यह लोग बैंक की राज्य स्तरीय वर्चुअल आमसभा में शामिल हुए थे। बदले में इन्हें उपहार स्वरूप सिक्के दिए गए। एक सिक्के का वजन ढाई सौ ग्राम। बोले तो-पाव भर। किसानों को कर्ज देने के लिए बनी बैंक ने उपहार के नाम पर दस किलो चांदी का घोळ अफसरों पे कर दिया। मामला अखबार की सुर्खिया बना तो हंगामा हुई गवा। हथाईबाजों के एक खेमें ने इस की जोरदार निंदा की। आज दूसरा खेमा-चांदीबाजों के पक्ष में उतर गया।
देखो रे भाई, लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष होणा भी चाहिए। एक ने कहा-सिक्के क्यूं लिए-दूसरे ने कहा-ले लिए तो ले लिए। निंदकों ने कल अपना पक्ष रख दिया आज समर्थकों की बारी। कहते हैं-‘चांदी लेणे उनके घर थोड़े ही गए थे। उनने उपहार दिया, इनने ले लिया।
इसमें हैरानी किस बात की। इसमें कौन सा इश्यू है। उपहार का लेन-देन चलता आया है। आज बैंक ने साबों को ऑब्लाइज किया कल साब बैंक को ऑब्लाइज कर देंगे। मामला नक्की। उखाड़-पछाड़ हुई तो एक कलक्टर साब सिक्का लौटाने को राजी हो गए। कोई ने कहा-वापस क्यूं दें..घर आई लिछमी को वापस कौन लौटाता है। किसी ने मौन साध लिया। कोई साफ मुकर गए-हम ने तो सिक्का लिया ही नहीं। कुल जमा पंचायतीलालों ने ‘नितर म्हारो रूपियो पाछो दे.. के सुर बिखेर दिए।