अब नजरें उधर…

भाई लोगों ने एक सीढी तो चढ ली, अब दूसरी-तीसरी और चौंथी पर नजर। इन चारों के पत्ते खुलने पर ‘ठा पड़ेगी कि एका कितना हुआ। कितनी एकता हुई। वरना नारे के बाद बातें बनती हैं- ‘कहने में क्या जाता हैं। जमीन पर उतरता दिखाई देगा। जिन पर इन की नजरें-उन पर उनकी नजरें भी। दोनों की नजरें तेल और तेल की धार पर। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
आगे तो बढना ही है, हम पीछे हटने वाले कहां। पुरखे सीख देकर गए थे-‘पुत्तर सच्चाई के मार्ग से कभी पीछे मत हटना। हम उसी मार्ग पर चल रहे हैं। इस राह में रोड़े हैं। लोचे हैं। आग है। अंगारे हैं। कांटे हैं। झाड़ हैं। इस का मतलब ये तो नही कि रास्ता बदल दें। अब तलक तो ऐसा हुआ नही है, आशा ही नही बल्कि पूर्ण विश्वास है कि आइंदा भी ऐसा नही होगा।

सांच को तकलीफ आ सकती है मगर उसे कोई हरा नही सकता। यह आदर्श वाक्य हथाईबाजों ने जीवन में उतार रखा है। भाई लोगों ने इस पर सियासी रंग चढाने के भतेरे प्रयास किए। चीख-चीख के कहा। चिल्ला-चिल्ला कर कहा-‘सच्चाई को कोई हरा नही सकता। अंजाम सब के सामने हैं। खुद सियासतअली डाफाचूक हुए बैठे हैं। खुद उन की समझ में नही आ रहा है कि सच्चा कौन था और झूठा कौन। किस ने किस की सच्चाई पे चोट की थी। हम सबने नाटक तो देखा। बड़ी गंभीरता से देखा। नाटक में उतार देखा। चढाव देखा। परदा गिरा तो खोदा पहाड़-निकली चूहिया..वह भी बेहोश। क्या बद्तमिजी है यार.. जब अंत ऐसा ही करना था तो नाटक-तमाशा करने की जरूरत ही क्या थी। तुम अभी जीते नहीं-हम अभी हारे नहीं..। अब तो लोगों का मन सियासी नाटक से भी उचक गया है। सियासी नाटक के माने-नूरा कुश्ती। राजनीतिक तमाशे के माने-तुम मुझे गिलगिलाएं करो-मैं तुम्हें। ऐसे टोटके तुम्हीं को मुबारक।


बात आगे बढने से पहले की। बात नारे से निकलती बातों की। बातें भी ऐसी-वैसी नहीं। गौर करो तो गंभीर वरना ठीक वैसी जैसी लोगों ने 30-35 दिन चले ‘जमुरे-मदारी खेल के दौरान देखी। एक बाड़ा इनका-दूसरा उन का। एक बड़ा बाड़ा-दूसरा छोटा। एक बाड़े की चाबी बड़े मियां के पास-दूसरे की चाबी छोटे मियां के पास। बाड़ा युद्ध ऐसा हुआ कि बात नकारा-निकम्मा-गद्दार और ना जाने कहां-कहां तक पहुंच गई। गृहयुद्ध में बैगन और बिंताक को घसीट लिया गया। उसके बाद क्या हुआ-सबने देखा। कल तक जिन हाथों ने एक-दूसरे को कटके काढे। कल तक जिन हाथों ने एक-दूसरे को ‘भूंडे दिए, वही हाथ ‘विक्ट्री का साइन बनाते दिखे।

ऐसे में एक नारा आम है-‘आवाज दो..। पीछे से बांग आती है-‘हम एक हैं। तभी पीछे खुसुर-फुसर होती है। कोई फुसफुसाता है। कोई बुदबुदाता है। कोई हल्के से सुर फोड़ता है-‘कहने में क्या जाता है। इसके माने क्या। इसके माने ये कि खाली-पीली नारे लगाने से एकता नही आती। एकता के लिए अपने स्वार्थ छोडऩे पड़ते हैं। एकता के लिए कथनी और करनी का भेद मिटाना पड़ता है। एकता के लिए ‘म्हे अर म्हारो गीगलो की भावना को ताक पे रखना पड़ता है। एकता के लिए त्याग करना पड़ता है। सियासी नारेपंथी से एकता नही होती। हुई या नही हुई यह भी सामने आ जाएगा। पहली सीढी पे आकर तो बैठ गए-आगे क्या होगा, समय बताएगा।


पहली सीढी के तार कांगरेस में पिछले दिनों हुए तमाशे से जुड़े हुए। पहली सीढी के माने दोनों पक्षों को सुनने-समस्या का समाधान करने और मतभेद दूर करने के लिए जिस समिति के गठन का वादा पार्टी के ‘नींदू आलाकमान ने किया था, उसका गठन कर दिया गया। नींदू पर कांगरेसजनों की आपत्ति हो सकती है। आप ने हमारे हाइकमान को ‘नींदू कैसे कह दिया। उनको करारा जवाब ये कि ‘नींदू को नींदू नहीं तो क्या नंदू कहेंगे। तुम एक महिने से बाड़ाबंदी देख रहे हो। खेमांबंदी देख रहे हो। नकारा-निकम्मा सुन रहे हो और चुपचाप बैठे रहे। एंड में जाकर जिस नाटक से परदा गिराया उसे एक माह पहले ही गिराया जा सकता था। तलवारें खिंचने के बावजूद जो ऊंघता रहे उसे ‘नींदू कहना कत्तई गलत नहीं है।

खैर वो नींदू हो ऊ ंघू कांगरेसियों के तो सिरमौर है। वो है तो पार्टी है। उन बिन पार्टी सून। उन्होंने समिति बनानी थी-बना दी। अब सबकी नजर मंत्रिमंडल विस्तार की ओर। सब की नजर राजनीतिक नियुक्तियों की ओर। सब की नजर संगठन के विस्तार पर। पता चल जाएगा कि किस बाड़े को क्या मिलता है। किस के समर्थक को कहां फिट किया जाता है। एका रहेगा या फिर बाड़ापंथी होगी-नजरें इस पे भी। तब तक इंतजार।