आत्म-निरीक्षण एवं क्षमा का पर्व है- पर्युषण

पदमचंद गांधी


विश्व पटल पर भारत की परम्परा बहुरंगी है, उसमें अनेक सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का समावेश है। यह देश ऋषि मुनियों का देश है। जिसकी हवा में संस्कार है किरणों में धर्म का प्रकाश है, साधुसन्तों का आर्शीवाद है, वह देश परिपूर्ण होता है। इस देश की संस्कृतियों पर एक दृष्टि डाले तो चारों तरफ पर्व एवं त्यौहार नजर आते है जो श्रृृद्धा एवं आस्था के साथ लौकिक एवं अलौकिक रूप से मनाये जाते है। लोकिक पर्व जो आमोद प्रमोद, हर्ष उल्लास, भोगविलास के लिए हेाते है जो किवल शरीर पोषण एवं मनोरंजन से सम्बन्धित होते है। लोकोत्तर या अलौकिक पर्व का सम्बन्ध आत्म साधना से होता है, जो आत्मोत्थान की प्रेरणा देता है।

पर्युषण पर्व भी लोकोत्तर पर्व है। इन पवित्र पर्वों में मानव अपनी आत्मा के निवास स्थान रूपी शरीर से राग-द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व का कचरा निकाल कर उसे शुद्ध एवं स्वचछ बनाने का प्रयास करता है। जैन दर्शन एवं संस्कृति में चार्तुमास के भादवे माह में पर्युषण पर्व का विशेष आध्यात्मिक महत्व है। इस अष्ट दिवसीय पर्व में चरित्रात्माओं के सानिध्य में तप, त्याग एवं धर्माराधना करने का सुअवसर हमें प्राप्त होता है। यह पर्व आत्मा को निर्मल करने का सुलभ मार्ग है। जीवन मे काम, क्रोध, वैर-भाव की की गांठों का विसर्जन करना स्वयं को राग-द्वेष से उपर करना व अहंकार, कपट और लोभ की वृतियों को शिथिल करना एवं जीवन में ‘क्षमा वीरस्य भूषणम‘ को धारण कर अशक्ति के तनाव से मुक्त होकर आगे बढ़ना पर्युषण पर्व है। पर्युषण पर्व आत्मा पर चढ़े हुए कषयों के मैल को धोने का डिर्टजेन्ट है जिसे हम अपनी आत्मा को जागृत कर चौबीस कैरेट स्वर्ण बना सकते है। यह एक ऐसा पर्व है जो विनय एवं विवेक की सीढ़ी द्वारा मन, वचन, एवं काया को शुद्ध करता हुआ अपने पापों का प्रयश्चित कर आत्मा को निर्मल बनाता है।

पर्युषण का सामान्य अर्थ है आत्मा के समीप रहना, आत्मा के घर में स्थित होना। परि=पूर्ण रूप तथा वस= स्थिर रहना अर्थात आत्मा के स्थिर रहना या निज घर में रहना। दूसरे रूप से संस्कृत में इसका अर्थ है परि$उषण परि का अर्थ है चारों ओर से, पूर्ण रूप से, आच्छादित कषायों का कचरा तथा उषण का अर्थ है जलाना या उप शमन करना। अर्थात् आत्मा के चारो और से कर्मों के विषय विकारों का जो कचरा है, उस कचरे को तपस्या की अग्नि में जलाया जाय उसका नाम पर्युषण है। यह पर से स्व मे आने का सुलभ साधन है। अपनी आत्मा में रमण करना, अपनी आत्मा को पहचानना, आत्म हितकारी कार्य करना पर्युषण का उद्देश्य है।

आत्मा के पास होते हुए भी यदि आत्म ज्ञान से दूर है, आत्म-विशुद्धि से विमुख है, आत्मोन्नति से विपरीत है तो आत्मा के पास रहते हुए भी बहुत दूर है। यदि आत्म विकास व आत्मशुद्धि की और जागृत हुए तो निश्चित ही हम आत्मा के पास है।

पर्युषण पर्व मुरव्यत आत्मा के निरीक्षण का पर्व है। आत्म निरीक्षण से यह अनुभव होता है कि हमने कहां कहां गलतियां की है, कहां कहां अनाधिकृत चेष्टाएं की है। ज्ञात-अज्ञात भूलों का प्रायश्चित कर क्षमा मांगना एवं क्षमा करना इस पर्व का उद्देश्य है। कहा भी गया है “परि समन्तात उष्यते स्थीयते योसिमन तत् पर्युषणम्“ अर्थात जिसमें सभी प्रकार से स्थित या स्थिर हो जाना पर्युषण है। विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना पर्युषण है। पर्युषण प्रवास है, प्रवास में आत्मा है, आत्मा रमण ही पर्युषण है।

मिथ्यात्व प्रमाद एवं कषायों से रंजित व्यक्ति विभ्रम के आकर्षण में जीता है वही इन्हीं में उत्थान एवं विकास की संभावनाएं ढू़ढ़ता है। लेकिन सच यह है कि इस समय आत्मा की गति अंधकार में होती है क्योंकि वह ‘स्व‘ को भूल कर देह को महत्व देता है। अज्ञानवश एवं अंधकार पूर्ण अवस्था में देह ही सर्वोपरि लगती है। उसका पोषण, रख-रखाव एवं परिचर्या इसी में निमग्न हो जाता है। जबकि पर्युषण आत्मा को पोषित करने की पाठशाला है जहां पर धर्म एवं आध्यात्म के बीज अंकुरित होते है।

साधर्मिक साधकों से प्रीतिकर मधुर हितकारी व्यवहार करना उनकी सेवा शुश्रुषा करना पर्युषण का स्वरूप है। जिसमें तपस्या की साधना द्वारा कर्म निर्जरा कर, दुष्कर्मों का दहन किया जाता है, आत्मा की सम्यक उपासना कर क्रोधाधि कषायों व पांच इन्द्रिय विषय विकारों को शान्त बना कर परस्पर क्षमायाचना करना पर्युषण है। पर्युषण का नाम दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र का आठवाँ अध्याय ‘पर्युषण कल्प‘ के आधार पर रखा है। इसका दूसरा नाम ‘पुज्जुषणं कप्पो है। ‘परिवसनम‘ अर्थात आत्मा के निकट शुभ दशा में अन्तरंग और बहरिंग भाव जीवन को बसाना परिसनम् है। जैन धर्म में आठ की संख्या मांगलिक मानी है।

सिद्धो के आठ गुण जिन्हें आत्मा के गुण भी कहते है, आठ सिद्धियों, आठ प्रवचन माताए, योग के आठ अंग, आत्मा के रूचक आठ प्रदेश, आठ मद, और आठ कर्मों को महत्व दिया गया है। इसी प्रकार धर्माचार्यों ने पर्युषण के सात दिन तथा एक दिन सावंत्सरी को जोड कर अष्ट दिवसीय पर्व का रूप दिया है जिन्हें महापर्व भी कहते है। इस आठ दिनों में प्रत्येक दिवस जो दर्शन, दिवस, ज्ञान दिवस, चासरित्र दिवस, तपदिवस, दान दिवस, संयम दिवस, आत्म शुद्ध दिवस, तथा क्रोध विजय, अहिंस एवं क्षमा दिवस के रूप में साधक हर दिन अपने निर्जरा के प्रयास करता है अपनी आत्मा को कुन्दन बनाता है।

इन आठाों पर्युषण पर्व की आराधाना के पश्चात शुद्ध हृदय से उन सभी जीवों से अन्तःकरण से क्षमा याचना की जाती है, जिनकी आत्मा को हमारे द्वारा मन, वचन एवं काया से ठेस पहुंची हो और क्षमा दी जाती है जो स्वेच्छिक बिना शर्त सौहाद्रतापूर्ण अन्तर्मन से की जाती है। पयुर्षण का लक्ष्य ‘कर्मों की बेडि़या काटना‘ है क्योंकि अनन्तकाल से जीव कर्मा की बेडि़यों में जकड़ गया है जिन्हें आठ दिनों में हम हमारे कर्मां का लेखा जोखा देख पाते है। गुण-अवगुण की स्थिति की जांच कर पाते हैं। अपना आत्म निरीक्षण कर पाते है। हमारी आत्मा हल्की बनी या भारी, यह देख पाते है। हमारे व्यवह

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