धरना-पर्यटन

कोई यह नही समझ कि शीर्षक में प्रूफ मिस्टैक रह गई है। होना चाहिए धरना-प्रदर्शन और छप गया धरना-पर्यटन, मगर ऐसा नही है। हमने धरना-पर्यटन ही लिखा। प्रूफ रीडर को अचकच हुई तो उन्होंने भी तसल्ली की। लिखने वालों से कंसल्ट कर ओके किया और वही छपा। लिहाजा इस बाबत किसी को कोई शंका या आशंका नही होनी चाहिए। इस के बावजूद भी कोई वहम पाले या सवाल उठाए तो उठाए।

शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे। गलती या भूल हो जाना मानवीय प्रवृति है। मानखों से अक्सर कोई ना कोई भूल होती रहती है। देश-दुनिया में ऐसा कोई बंदा नहीं, जिसने कभी कोई भूल नही की हो। हमारे नेतों की भूल की वजह से देश के टुकड़े हुए। आज भी कई नेते ऐसे हैं जो अपनी गलतियों के कारण हाशिएं पर पड़े है। उनकी पार्टियां कराह रही है मगर वो अपनी दोगली-सूगली और तुष्टिकरण की नीति से बाज नही आ रहे।

गलती किसी से भी हो सकती है। आप से हो सकती है। इनसे-उनसे हो सकती है। बच्चे दिन में दस बार गलतिएं करते हैं। हम-आप ने भी कई गलतियां की होंगी। यकीनन की होंगी। स्कूल में विद्यार्थी गलतिएं करते हैं। दफ्तरों में बाबुओं से गलती हो जाती है। हिसाब-किताब में गलतियां रह जाती है। व्यापारियों का तकिया कलाम भी इन्ही से जुड़ा हुआ। उनके बिलों और रसीद बुकों के नीचे-‘भूल-चूक लेनी-देन लिखा मिल जाएगा।

हथाईबाजों का कहना है कि यदि किसी से कोई गलती हो जाए तो उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। अमचूर की तरह अकड़े रहने का कोई मतलब नहीं। जो झुकता है वो बड़ा है। क्षमा मांगने वाला तो महान है ही, क्षमा करने वाला उससे भी ज्यादा महान होता है। मगर अब सब कुछ उलटा-पुलटा हो रहा है।

लोग गलतियां करने के बावजूद मानने को तैयार नहीं होते। उलटे अपनी गलतियां दूसरों पर थोपने में कोई कोर-कसर नही रखते। इसके लिए वो किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनके इन कृत्यों की सजा कई बार बेगुनाहों को भुगतनी पड़ती है, तब उनकी जुबां से आह निकलती है-‘हम से का भूल हुई.. जो ये सजा हम का मिली..। अरे, भाई तुम से कोई भूल नही हुई। तुम पर तो गलतियां ‘थथेड़ी गई है.. थोपी गई है। पण हथाईबाजों ने शीर्षक लटकाने में कोई गलती नही की मगर उसमें जो लोचा-लफड़ा है उसे देखते हुए अचकच होना स्वाभाविक है।


आप ने देखा होगा कि जब-जब धरने की बात होती है, तब-तब प्रदर्शन की चर्चा होना अनिवार्य। दोनों की जोड़ी ऐसी बन गई कि तोड़े से टूटने वाली नही। जहां धरना वहां प्रदर्शन-जहां प्रदर्शन-वहां धरना। जहां धरना-प्रदर्शन हो और वहां नारे नही लगें, ऐसा हो ही नही सकता। बिन नारे प्रदर्शन सून। देश का ऐसा कोई महानगर-नगर-जिला-शहर और तालुका ऐसा नही जहां किसी ना किसी संगठन-दल या संस्था का धरना ना लगता हो। करमचारी काम कम धरनागिरी ज्यादा करते हैं। इसके हिसाब से शीर्षक में धरना प्रदर्शन होणा चाहिए था। पर्यटन में लोचा अवश्यंभावी है, मगर ऐसा है नहीं। धरना पर्यटन हुआ तभी तो कागद कारे करने पड़े वरना किसी को क्या पड़ी जो प्रदर्शन को हटा कर पर्यटन को बिठाता।

देश-दुनिया में इन दिनों दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा कथित किसानों का धरना चर्चा का विषय बना हुआ है। देश हमारा-किसान असली है या नकली-हैं तो हमारे। यह हमारा आंतरिक मामला हैं। हम जाणे और हमारा काम जाणे मगर कुछ विदेशी तत्व इसमें खामखा टांग अड़ा रहे हैं। अपने आप को सेलिब्रेटी मानने-समझने वाले लोग ग्वार और गम ग्वार में अंतर नहीं समझते। उन्हें बाजरी और बजरी के बीच का फरक पता नहीं। उन्हें ज्वार और मक्की के अंतर का पता नही और वो हमारे मामले में टांग अड़ा रहे हैं। उनकी बात क्या करें यहां तो घर के चिराग ही घर में आग लगाने में जुटे हुए है। सूगले और लिपळे नेता बजाय धरना-आंदोलन को रोकने के, अपनी सियासी रोटिएं सेंक रहे हैं। तभी तो उनने धरना पर्यटन शुरू कर दिया।
देश देख रहा है कि नेतों में धरना स्थल पर पहुंचने की हौड लगी हुई है। कांग्रेसी गए। आपजादे गए। आरएलडी वाले गए। एनसीसी वाले गए। अकाली दल वाले गए। सबने वहां जाकर चिंगारी छोड़ी। समझौते का प्रयास किसी ने नही किया। भैया की बहनिया तो रामपुर (यूपी) में उस युवक के घर मातमपुरसी के नाम पर राजनीति करने पहुंच गई जिस की मौत 26 जनवरी को दिल्ली में टे्रक्टर स्टंट करने के दौरान हुई। शोक जताना अच्छी बात है। दुख बांटना अच्छा है। मगर धरना-प्रदर्शन-मौत पर राजनीति करना उचित नहीं। कभी बलात्कार पर पर्यटन तो कभी धरने पर। कल को वो पाकिस्तान के खिलाफ हुई सर्जिकल स्ट्राइक का पर्यटन शुरू करने की फरमाइश ना कर बैठें।