
सब को पता है कि बिल्ली के चाहने भर से छीका टूटने वाला नहीं। उसी प्रकार हमारे कहने से संस्थानों के रखे-धरे नाम बदलने वाले नहीं। कई लोग समझ रहे होंगे कि हमने अपनी तुलना बिल्ली से की, तो यह उन की समझ। हमने तो फखत उदाहरण दिया है। कोई उसे किसी से जोड़े तो यह उनका व्यक्तिगत विचार और उनके विचारों का सदैव सम्मान। हमने तो सुझाव दिया है वह भी आम लोगों की जुबान से निकलती सच्चाई को आधार बनाकर। किसी को पसंद आए तो ठीक-नही आए तो ठीक। जाहिरा तौर पर ना सही जुबान पर वही रट्टा रहेगा जो लगता रहा है। तभी तो शीर्षक बना के लटकाया। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
आगे बढने से पहले बिल्ली और छीके वाली कहावत का बहीखाता खोलना जरूरी। कहावत को लेकर मचली जिज्ञासाओं को शांत करना भी जरूरी। पता है कि ये जिज्ञासाएं शांत होने वाली नहीं। कई लोग इसे बेतुकी चर्चा कहके पल्ला झाड़ लेंगे। हो सकता है कोई हमारी जिज्ञासा पे खुद की जिज्ञासा थोप दे। कहे-‘पहले आप ये बताओ कि मुर्गी पहले आई या अंडा, उसके बाद हम आप के सवाल का जवाब देने का प्रयास करेंगे। वो चाहे कुछ भी कहे, हमारी जिज्ञासा ये कि बिल्ली-छीके वाली कहावत को घडऩे वालों ने बिल्ली को ही क्यूं चुना। अपने यहां बिल्ली के इतर अन्य पालतु पशु भी हैं, मगर उनकी पसंद बिल्ली ही क्यूं रही।
वैसे, यह बात सही है कि पालतु जिनावरों का जिक्र होने पर सबसे पहले अथवा दूसरे-तीसरे स्थान पर बिल्ली का नाम ही आता है। कुत्ता-बिल्ली गाय-बकरी-घोड़ा आदि-इत्यादि भी सूची में। आप चाहें तो क्रम बदल सकते है। घोड़ा प्रेमियों के लिए घोड़ा पहले स्थान पर और कुत्ता प्रेमियों के लिए कुत्ता। हमारे लिए सारे जिनावर एक समान। हम पालतु जिनावरों के साथ जंगली जानवरों के भी हित चिंतक। सब को जीने का अधिकार है। हां, कोई कुत्ता हिड़किया हो जाए या कोई शेर आदमखोर हो जाए या कोई हाथी पगला जाए तो बात कुछ और है। पर हमारी जिज्ञासा ये कि कहावतपंथियों ने बिल्ली को ही यूं चुना। मान लिया कि जहां छीका टांगा जाता है वहां कुत्ते, गाय अथवा बकरियों का पहुंचना असंभव है। चूहे-बिल्ली कही से भी घुस सकते है। भाईजी चाहते तो बिल्ली की जगह बिलोटे को बिठा सकते थे। ऐसा होता तो कहावत का हाल-हूलिया सब बदला जाता। कहावत होती-‘बिलोटे के कहने से छीका नही टूटता।
यहां एक लोचा और। हमारी पीढी के लोगों को बखूबी पता है। बाद की नस्ल भी जान जाएगी मगर नई नस्ल ‘छीकेÓ के बारे में जानती हो, हमें तो नही लगता। आप चाहें तो इन दिनों ऑनलाइन पढने वाले बच्चों को पूछ के देख लीजिए। ग्रामीण परिपेक्ष्य और टे्रडिशनल परिवारों के बच्चे तो ‘छीके पर पत्रवाचन कर देंगे। नई नस्ल पर लोचा है। उन के लिए हम है ना। एक जमाने में इनका जोरदार रूतबा हुआ करता था। घर-घर में ‘छीके लटकते थे। किसी की रसोई में तो किसी की बसाळी में दही की हांडी-दूध का भगोना व अन्य छोटा-मोटा सामान रख कर तार से गूंथे छींके लटके मिल जाते हैं। कई लोग ऐसी और उनके मिलती-जुलती खाद्य सामग्री पिंजरानुमा अलमारी में रखते ताकि उन्हें बिल्लियों-चूहों-छिपकलियों से बचाया जा सके। छीके के नीचे बिराजी बिल्ली छीके को देखकर टूटने की कामना करती ताकि दूध-दही खाने को मिल जाए। तभी से कहावत चल पड़ी कि बिल्ली के कहने से छीका नही टूटता।
बाय द वे कड़ा या तार टूट जाए तो भी कहावत तैयार ‘बिल्ली के भाग्य का छीका टूट गया। पर हमें पता है कि हमारे कहने या सोचने से कुछ टूटना-फूटना नहीं। हम ने सोच लिया कि ऐसा हो जाए तो हो गया..। ऐसा ना तो हुआ और ना होणे वाला। अस्पताल कल भी अस्पताल थे, आज भी है और कल भी रहने हैं। यही टोटका स्कूलों पे लागू होता है। कोई उन्हें पर्यायवाची शब्दों से पुकार ले या उनका अंगरेजीकरण कर दे तो बात कुछ और वरना कोई लूटस्ताल कह दे या लूटशाला। उनके प्रबंधकों-संचालकों की सेहत पे कोई फरक पडऩे वाला नहीं।
हम ने अस्पताल और शाला के आगे ‘लूट इसलिए लगाया कि निजी क्षेत्र में यही हो रहा है। सरकारी अस्पतालों में जाओ तो कोई सुनने वाला नही। ना सुविधाएं ना देखभाल और प्राइवेट अस्पतालों में जाओ तो भारी भरकम बिल तैयार। स्कूलों का हाल-हूलिया भी इनसे मिलता-जुलता। सरकारी स्कूलों का ढर्रा बिगड़ा हुआ और प्राइवेट स्कूलों में वसूली। संकट के इस काल में जहां प्राइवेट अस्पतालों को भरपूर सेवाएं देनी चाहिए वहां एक दिन की 90 हजार तक की वसूली हो रही है। सरकरी अस्पताल ठसाठस होने के साथ बाद इंतजामी के शिकार और प्राइवेट अस्पतालों में बीमारी के नाम पर जोरदार वसूली। असल में इन्हें धाड़ास्ताल कहना चाहिए हम ने तो लूटस्ताल कहा है। उनके ऐसे कृत्यों पर शरम आती है।