
जैसा इस बार हुआ वैसा ‘शायद’ कभी नहीं हुआ। शायद हटा लिया जाए तो भी कोई दिक्कत नहीं। ऐसा कर दें तो पीछे रहेगा-वैसा कभी नहीं हुआ। जिसके साथ हुआ वह अब तक के इतिहास में पहली दफे हुआ। इससे पहले जिन स्कूली बच्चों के साथ हो गया सो हो गया। अब तो उनके साथ भी नहीं हो रहा। चांटागिरी तो दूर कोई हड़का भी दे तो घरवाले ‘दौळे’ पड़ जाते हैं। कौम-कुनबे वाले बांहे चढा के आते हैं। पहली बार हुआ अंतिम बार हुआ साबित हो जाए तो ठीक रहेगा। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
देरी करना और देरी हो जाने में खासा अंतर है। आप सरकारी विभागों को ले लीजिए। वहां कोई भी काम समय पर नहीं होता। कई बार तो देरी भी इतनी हो जाती है कि बाट जोहने वाले राम प्यारे-अल्लाह प्यारे हो जाते हैं। मुकदमेबाजी में भी यही टोटका लागू होता है। केस का फैसला होने में बरसों-बरस लग जाते हैं। तारीख पे तारीख। तारीख पे तारीख। कई बार नस्लें खप जाती हैं। एक जमाना था तब रेलें-बसें भी घंटों देरी से चलती और घंटों देरी से पहुंचती। एक बार एक भाए ने गुलाबसागर एक्सप्रेस को बीफोर आता देख कर हैरत जताई-‘वाव!Ó आज गाड़ी दस मिनट पहले आ गई.. शानदार..। तभी पास खड़ा एक रेलवे कर्मी बुदबुदाया-‘ कल आने वाली रेल आज आई है।’ इससे मिलती-जुलती स्थिति सरकारी बसों की रही। अब तो खैर काफी कुछ बदला है, वरना वो जमाने आज भी याद हैं और कल-भी भूलने वाले नहीं। अपने यहां हवाईजहाज लेट हो जाते हैं तो टैंपो-बस की बात ही क्या।
सरकारी महकमों के साथ-साथ अपने यहां की पुलिस भी लेटलतीफी के लिए खासी बदनाम है। वो कहावतधारी कितना दूरदृष्टा रहा होगा जिसने-‘सांप निकलने के बाद-लाठी पीटनेÓ वाली कहावत घड़ी। कभी-कभार सोचते हैं कि देरसिंघ-देरचंद टाईप के पांडु कंपाउंडर अथवा डॉक्टर होते और दवा-इंजेक्शन देने जाते तो पता चलता कि बीमार को सिधारे हुए 72 घंटे हो गए। आज उस के तीसरे का उठावणा है। सुधि-संत-सयानों ने हर कार्य समय पर करने की सीख दी हुई है। समझाया नसीहत दी। भाईबीरे से कहा-‘काल करे सो आज कर-आज करे सो अब..।Ó मगर कारिंदों ने उस पर ‘आज करें सा काल कर.. का ठप्पा ठोक दिया।Ó कल कब आएगा-कोई कुछ नही कह सकता। दरख्वास्त देन वाला चक्कर लगाते-लगाते थक जाए। बाबू-अफसरों पर कोई फरक नहीं पड़ता। वहां नौ दिन अढाई कोस चले जैसी भी रफ्तार नहीं। सरकारी विभागां में सुपर देरी एक्सप्रेस रेंगती है।
सरकारी महकमें तो बदनाम है, वरना अपने यहां हर काम में देरी होना आम प्रचलन है। कार्यक्रम शुरू होना है पांच बजे-मंतरी महोदय आते है छह बजे। सभा शुरू होनी है। चार बजे। भाषण खोर आते हैं सात बजे। जित्ते-जींजे बजाते रहो। बारात चढनी होती है रात आठ बजे। बैंड पार्टी आती है-दस बजे। जित्ते-जींजे बजाते रहो। बारात चढनी होती हैं रात आठ बजे। बैंड पार्टी आती है-दस बजे। कुल जमा समय की पाबंदी इक्का-दुक्का जगहों पर ही मिलती है वरना इंतहा हो गई.. इंतजार की..। आप किसी दफ्तर में चले जाइए। साब लोग ‘बींद पगलिया’ की तरह पधारते हैं। समय साढे नौ बजे आने का आते हैं साढे दस-ग्यारह बजे। सामान-वामान जमाते हैं जित्ते में लंच का समय हो जाता है। लंच ब्रेक के घंटा आधा घंटा बाद फिर पदार्पण होता है। उसमें काम किया तो ठीक-नही किया तो कोई पूछने वाला नहीं। कोई विरोध करे तो करमचारी एकता जिंदाबाद। कलम डाउन हड़ताल। अरे यार तुम ने कलम पकड़ी कब, जो डाउन कर रहे हो।
पर वहां जो देरी कांड हुआ। वह अपने आप में अजब-अजूबा। हैरतनाक के साथ-साथ शरमनाक भी। स्कूल में बच्चे देरी से आएं तो डांटडपट लो। बाऊजी-माट्साब-बैंजी लेट आने पर निरीक्षण के दौरान पकड़ीज जाए तो हाफ सीएल लगा द्यो। ज्यादा से ज्यादा नोटिस भेजकर स्पष्टीकरण मांग ल्यो। मगर वहां तो चांटागिरी हो गई। जूतापंथी हो गई।
हवा बुलडोजर बाबा के यूपी से आई। वहां रामपुर की एक स्कूल में बहनजी देरी से आई तो हैैडमाट्साब ने उन्हें कूट दिया। मैडम को चांटे रसीद कर दिए। देरी के बदलेे रेपटें। इस बात की खबर पंचायत और गांव वालों को लगी तो देरी कांड-चांटाकांड ने और तूल पकड़ लिया। मामला जूताखोरी पे आ गया। पंचायत ने हैडमाट्साब को जूते ठोकने की सजा सुना दी। चांटों की शिकार हुई ‘मैडमÓ ने जूतों से कूटाई कर ‘सरÓ का हिसाब-किताब चूकता कर दिया। चांटापंथी और जूताखोरी के बाद दोनों पक्षों में समझौता हो गया। तब तक तो थप्पड़ और जूतों की गूंज दूर तक पहुंच चुकी थी।