किसानियत पर कलंक!

आखिर वहीं हुआ, जिसकी आशंका पहले ही जता दी गई थी। भतेरों को पता था कि ये लोग वो नहीं हो सकते जिनकी आड़ लेकर अड़े बैठे थे। कहां वो महान और कहां ये। इन लोगों ने साबित कर दिया कि ये वो नहीं हैं। तो ये कौन हैं। उन सब की पहचान होनी चाहिए। वो कौन हैं जिन्होंने ट्रेक्टर रैली के नाम पर दिल्ली में टेरर फैलाया। वो कौन है जिन्होंने लाल किले की प्राचीर पर अपना झंडा फहरा कर देश विरोधी कृत्य किया। वो कौन हैं जिन्होंने किसानियत को लजा दिया। हमने पहले ही इस बात की आशंका जता दी थी कि वो चाहे जो हों, किसान तो कत्तई नहीं हो सकते। यह आशंका एकदम खरी साबित हुुई। शहर की सभी हथाईयों पर उसी पे लानत डाली जा रही थी।

दिल्ली में मंगलवार 26 जनवरी गणतंंत्र दिवस पर जो कुछ हुआ वह देश को शर्मसार करने वाला था। मु_ी भर लोगों ने पूरी किसान कौम को बदनाम कर दिया। यह वो लोग है जो देश का भला नहीं चाहते। यह वो लोग है जिन्होंने अन्नदाताओं के कंधे पर बंदूक रख कर फायर करने की हिमाकत की। हमने चीख-चीख के कहा था – दिल्ली को बंधक बनाने के प्रयास में जुटे यह लोग फरजी किसान हैं। यह लोग किसान है ही नहीं। असली किसानों को खेत-खलिहानों से ही फुरसत नहीं मिलती। वो धरती से सोना उपजाने में खपा रहता है। उसके पास इतना समय कहां जो दो माह तक रास्ते रोक के बैठा रहा। असल में यह लोग बिचौलिए थे। यह लोग आढतिए थे, जिनकी दुकाने कृषि कानून के कारण बंद होने वाली हैं। यह कानून सीधे तौर पे आम किसानों के लिए फायदेमंद है। इन बिचौलियों ने देखा कि उनकी दुकानदारी बंद होने वाली है तो उन्होंने किसान का मुखौटा पहन कर जाम लगा दिया। साथ में वो अलगाववादी तत्व जिन्हें देश की एकता कभी सुहाई नहीं।

हमने दिल्ली की सीमाएं रोके बैठे लोगों ेके बारे में पढ़ा-सुना तो हैरत हुई। हमारा किसान इतना समृद्ध कि उनके आगे राजे-महाराजे भी पानी भरे। उनके पास ऐसी-ऐसी सुविधाएं थी, जो कारों और कोठियों वालों के पास भी नहीं मिलती। अगर हमारा आम किसान वाकई में ऐसा ठाठबाठवादी होता तो साल में तीन सौ पैसठ दिन खेत-खलिहानों में काहे को खपता। हाथ-पांव में मालिश करने की मशीन जिन किसानों के पास हों, वो सच्चे किसान हो ही नहीं सकते। साफ है कि किसानों के नाम पर अलगाववादी-उग्रवादी और खालिस्तानी समर्थक भी जामपंथियों के साथ जुट गए। उसी का नतीजा देशवासियों ने दिल्ली में देखा। उन पर लानत और उनका समर्थन करने वाले कतिपय सियासी दलों की सोच पर भी लानत।

देशवासी पिछले करीब दो माह से इन फरजी किसानों को धरने पर बैठा देख रहे थे। सरकार ने इनके नेतों के साथ ग्यारह दौर की बातचीत की। उनकी कई मांगें स्वीकार भी की। उनके साथ समझौता कर जाम खोलने के यथासंभव प्रयास किए। यहां तक कि तीनों कानून साल-डेढ साल तक लागू नहीं करने की पेशकश भी कर दी मगर किसानों केे नाम को बदनाम करने वाले ये तत्व टस से मस नहीं हुए। एक ही रट्टा। एक ही राग। एक ही बात पर अडाअडी कि कानून समाप्ति से कम कोई बात नहीं होगी। अरे भाई, ऐसी कौन सी सरकार आई जिसने अपनी ही प्रजा का गला घोंटा। इमरजेंसी काल छोड़ द्यो। वैसा करने वालों की हालत सब देख रहे है।

भला ऐसी कौन सी सरकार होगी जो अन्नदाताओं को निचोड़ लेगी। ऐसा फिलहाल तो होते देखा नहीं, आइंदा किसी ने ऐसी जहालत की तो हमें निपटना भी आता हैं। मगर बिचौलियों ने किसानों को गुमराह कर दिया। कुछ भोलेभाले किसान उनके बहकावे में आ गए। अगर कानून किसान विरोधी होते तो ढाई राज्यों के किसान ही क्यूं फडफडाते। कानूनों का पूरे देश में प्रचंड विरोध होता। सरकार की चूलें हिल जाती। क्यों कि कानून से पंजाब-हरियाणा और यूपी के बिचौलिए प्रभावित हुए। लिहाजा उन्होंने जो गंदा खेल खेला उसे पूरे देश ने देखा। इन फरजियों ने गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के बाहरी क्षेत्रों में ट्रेक्टर रैली निकालने की मंजूरी मांगी थी। पुलिस ने 37 शर्तो के साथ मंजूरी दे भी दी मगर उन्होंने शर्तो को ताक पे रख कर जो तांडव मचाया उस पर जितनी लानत डाली जाए, कम है। ये तत्व जिस प्रकार हथियारों से लैस होकर आए थे, उससे साफ जाहिर है कि उनके इरादे गंदे थे।

हथाईबाजों के साथ-साथ पूरा देश फरजी किसानों की बेशर्म करतूत पर लानत डाल रहा है। उन दलों को भी धिक्कार जो ऐसी शर्मनाक करतूत पर भी सूगली सियासत करने से बाज नहीं आ रहे। हमारी मांग है कि उन बवालियों-तांडवियों-उग्रवादियों और हिंसा फैलाने वालों-तोडफोड करने वालों की पहचान कर ऐसी कडी कार्रवाई की जाए कि आइंदा कोई किसानियत को शर्मिन्दा करने की सोच भी नहीं सके। असली किसानों की जै। फरजी किसान मुुरदाबाद।

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