अंटी लेकर शपथ

नीचे से लेकर ऊपर तक और ऊपर से लेकर नीचे तक जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हुए कभी-कभार मन में यह विचार आता है कि जहां-जहां शपथ लेने के प्रावधान है, उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है। इससे पहले इस मामले की निष्पक्ष जांच हो कि अंदरखाने हो क्या रहा है। इसमें भी लोचा ये कि निष्पक्षता कहां पाई जाती है। कृपया सूचना दें। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

हमारा आग्रह है कि ऊपरी पेरेग्राफ को गंभीरता से बांचा जाए। एक बार पढा जाए दो-तीन बार पढा जाए। ऐसा करने में कोई खरचा नही होणा है। हो जाए तो भी कोई गम नहीं। चाराने-आठाने या रूपड़की-दो रूपड़की खरच करने से अगर ज्ञान सागर मिल जाए तो कहने ही क्या। ऐसा आग्रह करने की जरूरत इसलिए पड़ी कि हम लोग किसी मामले को गंभीरता से नही लेते। किस-किस को याद रखें-किस-किस को रोएं, आराम बड़ी चीज है-मुंह ढक के सोएं-हमारे ‘रूंगतो मे समाया हुआ। हम एक पल में सिर पे बिठा लेते है-अगले ही पल गिराने में पीछे नही रहते। हम किसी को ईनाम देते हैं, तो सजा देने मे भी आगे रहते हैं। हम सहज है तो धीर-गंभीर भी मगर वो धीरता-गंभीरता नजर आती है, तभी आती है वरना हम भले-हमारी मस्ती भली।

अगर आपने हमारे आग्रह को स्वीकार कर शुरूआती पेरेग्राफ का गंभीरता से वाचन किया तो कई बातें बिखरी मिलेंगी, जिन को सहेजने की जिम्मेदारी हम-आप सब की है। अकेला चणा भाड़ नही झोंक सकता। एक से भले दो-दो से भले चार। एकता में बल है। एक तो मिणिए अलग-अलग हो और दूसरे उन्हें माला के रूप में पिरोया जाए तो कितना और कैसा फरक नजर आएगा, इस पर पत्रवाचन करने की जरूरत नही। पेरेग्राफ में ज्ञान का जो खजाना छुपा हुआ है-उसे गंभीरता से गौर करने पर तलाशा जा सकता है। पाया जा सकता है। पेरेग्राफ में ऊपर से नीचे-नीचे से ऊपर से लेकर निष्पक्षता कहां पाई जाती है का समावेश है। इस सफर के बीच में शपथ लेने और शपथ में परिवर्तन लाने का जिक्र भी है।

कई बार इस बात पर बहस खड़ी हो जाती है, या कि खड़ी कर दी जाती है कि बहाव ऊपर से नीचे की ओर चलता है या नीचे से ऊपर की ओर। इस पर हरेक प्रतिभागी के अपने-अपने तर्क हो सकते है। बहाव का मतलब सिर्फ पानी। पानी का मतलब पानी। किसी अन्य तरल पदार्थ से नहीं। अन्य का तो नाम है वरना पानी बहाव का सिरमौर। कोई दूध का बहाव दर्शा दे तो लिखापढ़ी मेें ठीक लगता है मगर सच्चाई से परे। एक जमाने में कहा जाता था कि अपने देश में घी-दूध की नदिएं बहा करती थी।

इस का मतलब ये नही कि दूध-घी-दही की बारिश हुआ करती थी। इसका मतलब यह नही कि दूध सागर लबालब रहा करते थेे। इस का मतलब यह नही कि घी के पनाळे गिरा करते थे। इसका मतलब यह नही कि दहीसर सरोवरों पर चादर चला करती थी। मतलब ये कि उस समय हम संपन्न थे। खुश थे। समृद्ध थे। चारों ओर खुशी थी। हर चेहरे पे मुस्कान थी। लोगों में अपनापा था। प्यार-मौहब्बत सहयोग की भावना थी। भारत विश्व गुरू कहलाया करता था। आज भी हम किसी से कम नही मगर कल वाली बात नहीं। हो सकता है-गुजरा कल वापस आ जाए। कोशिश तो करते हैं मगर खुदगर्ज लोगों की वजह से दो कदम आगे और चार कदम पीछे वाली स्थिति पैदा हो जाती है। इसके तार बहाव से जुड़े। दूध की जगह पानी की बात करें तो ज्यादा बेहतर रहेगा। बहाव तो नीचे की तरफ ही होता है ऊपर तो पानी चढाया जाता है। इसके लिए टुलू पंप और मशीन का सहारा लिया जाता है।


इसमें भ्रष्टाचार और घूसखोरी का घालमेल कर दिया जाए तो सवाल उठना वाजिब है। भ्रष्टाचार चौकीदार या अंतिम श्रेणी के कर्मचारी से शुरू होकर बॉस तक जाता है या घूसखोरी नेम प्लेट वाले कमरे से प्रारंभ होकर स्टूल पर बैठ कर जरदा-चूना रगड़ रहे मांगीलाल तक पहुंची है। ऊपर-नीचे के इस दौर में यहां-वहां बिराजे बाऊजी भी शामिल। यह बात दीगर है कि सौदेबाजी कहां से शुरू होती है और कहां जाकर घूस परेड थम्म होती है। बात करें निष्पक्षता की तो उसे ढंूढा जाना भी टेडी खीर। लिखने-पढने-बोलने में तो हरी-भरी लगती है मगर जमीनी सच्चाई से परे। जांच पे शक। जांच रिपोर्ट पे शक। आदरजोग कोर्ट के निर्णयों पर पीठ पीछे खुसर-फुसर। जांच अधिकारी पे शक। जांच एजेंसी पे शक।

अब आते हैं शपथ और आमूल चूल परिवर्तन पे, तो यह भी शक-संदेह के घेरे में। अपने यहां लगभग हर जिम्मेदारी का पद संभालने से पूर्व शपथ लेने का रिवाज है। क्या मंतरी और क्या सांसद। क्या विधायक और क्या स्थानीय निकाय का सदस्य। क्या शहरी और क्या गांवाई सरकार का नुमाइंदा। डॉक्टर्स-पुलिस वाले-इंजीनियर्स-वैज्ञानिक-अफसर और करमचारी। सब के सब संविधान के मुजब कार्य करने और सेवा की शपथ लेते हैं। शक होता है कि कहीं वो अंटी लेकर तो शपथ नही लेते। शक होता है कि कहीं वो मुंह में सूत रख कर तो शपथ नही लेते। ऐसा होता होगा तभी तो शपथ चिंदिया उड़ाई जा रही है। सरहदों के पहरूओं को छोड़ दो, वरना चारों ओर शपथ लथपथ पडी नजर आती है। सेवा की शपथ लेने वाले लोग कोरोनाकाल जैसी भयंकर संकट की घड़ी में भी काली कमाई करने से बाज नही आ रहे। एक रूपए का माल दस रूपए में। बीस रूपए की दवा दो सौ रूपये में। खरीद में महा घोटाला-बेचाण में महाघोटाला। सेवा की शपथ गई भाड़ में। ऐसे लोगों की अंटी खोलना जरूरी है। सवाल ये कि सब मिल के खाएंगे की ‘गोठ में अंटी खोले कौन।