कुरसी रानी.. बड़ी सयानी…

हमें लगता है कि उस बाल कविता में बदलाव करने की जरूरत है। बच्चा लोग भले ही उसका मूल रूप से वाचन करे। सियासी क्षेत्र में परोसी जाए तो बदलाव होना जरूरी है। हम तो कहें कि जब-जब, जहां-जहां कोई भी राजनीतिक कार्यक्रम हो, वहां-वहां उसका वाचन किया जाए। पठन-पाठन से दो कदम आगे बढ कर बात की जाए तो कविता के परिवर्तित रूप को राजनीतिक कविता का दरजा भी दिया जा सकता है। जिसका उपयोग सभी दलों के नुमाइंदे कर सकते हैं। खास कर सत्ता पक्ष वालों के लिए इसका उपयोग अनिवार्य कर दिया जाए। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

आज-कल बाल साहित्य और बाल कविताओं का दौर लगभग थम सा गया लग रहा है। बाल साहित्य तो ढूंढे से नहीं मिलता है और कविताओं का पठन-पाठन भी लगभग रूक सा गया है। हमें हमारा बचपना याद है। आप को भी याद होगा। हम तो कहें कि हर बंदे को अपना बचपन हमेशा याद रखना चाहिए। बड़े-बढेरे भी हमारी इस बात के समर्थक। उनका कहना है कि इंसान को अपना बचपन और बचपना हमेशा तरोताजा रखना चाहिए। भले ही कोई 80 या 90 प्लस हो जाए। भले ही बाल धोळे धच्च हो जाएं। मुंह पोपला हो जाए। उनका बचपन खल्लास नही होना चाहिए। वैसे भी अपने यहां यह अक्सर कहा जाता है कि बुढापे और बचपन में ज्यादा फरक नही है। जैसे बच्चों को केवटने में मशक्कत करनी पड़ती है, वैसे ही बुजुर्गों को केवटना पड़ता है।

हमने बचपन में भतेरी ऐसी किताबें पढी जो बच्चों के लिए ज्ञानवद्र्धक मनोरंजक और टाइम पास का माध्यम कही जाती थी। उस जमाने में किराए पर पुस्तकें उपलब्ध करवाने वाली दुकानों की भरमार थी। जहां हर वर्ग के लिए पुस्तकें किराए पे उपलब्ध करवाई जाती थी। लोगबाग वहां से अपनी पसंद के मुताबिक किताबें चौबीस घंटे के लिए ले जाते। इसके लिए बकायदा रजिस्टर मेंटन किया जाता था। जिसमें किताब ले जाने वाले का नाम-पता-जमानती का नाम और तारीख-समय अंकित किया जाता। किताबों का किराया कहीं 15 तो कहीं 20-25 पैसे। सभी का समय चौबीस कलाक में वापस जमा करवाने का। हम बच्चा लोग हमारे पसंद की किताब घंटे-दो घंटे में निपटा देते फिर उसका पठन-पाठन गुवाड़ी के अन्य बच्चे करते। याने कि एक लोटपोट या चंदामामा अथवा चाचा चौधरी और साबू का मजा पूरी गुवाड़ी लूटती। कई बार किराया बबलू देता-कभी चिंटू तो कभी दस पैसे इसके-पांच पैसे उसके। यूं करके गरमी की छुट्टियां निकल जाती। बड़े लोगों को भी अपने उपन्यास चौबीस घंटे में निपटाने पड़ते। जमा करवाने में घंटा-आधा घंटा लेट हो जाए तो अगले दिन का किराया शुरू।

उन दिनों बच्चा लोगों के लिए भांत-भांत की किताबें आया करती थी। चंपक से लेकर जादू की छड़ी और परी लोक से लेकर सुंदर वन। किताबों में शिक्षाप्रद कहानियां। प्रेरणादायक कहानियां। वीरों-शूरवीरों की कहानियां। महापुरूषों की कहानियां। ज्ञानवद्र्धक कहानियां। इन से मिलती-जुलती कहानियां रात को आई-बाबा या दादी-दादू से सुनने को मिलती। कभी बच्चा पार्टी दादी के पास तो कभी दादू के चारूमेर। वो कहानियां सुनाते रहते और बच्चे एक-एक करके नींद की आगोश में समाते रहते।

इसी प्रकार स्कूलों में हर शनिवार को ‘रेसिस के बाद बाल सभाएं हुआ करती थी। जिन में बच्चों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का अवसर मिलता। कोई देश प्रेम से ओतप्रोत गीत गाता तो कोई फिल्मी गीतों पर बनी पेरोडियां। कोई मोनो एक्टिंग करता तो कोई मूकाभिनय। कोई कविता का वाचन करता तो कोई नृत्यकला का प्रदर्शन। स्कूल तो स्कूल आस-पास के लोग भी आकर बच्चों की प्रतिभा का प्रदर्शन देखते और उनकी हौंसला अफजाई किया करते थे।

बात करें घर गांव-गली-गुवाड़ी की तो वहां भी बच्चे शाम को इकट्ठे हो कर कभी पारंपरिक खेल खेलते या फिर बाल सभाओं का घर सभा में रिहर्सल करते। कोई चंदामामा की कविता कहता तो कोई मछली जल की रानी है..। कोई कोयल की कविता सुनाता तो कोई बिल्ली की। हमने.. ‘रानी बड़ी सयानी गई कुएं पर भरने पानी वाली कविता में रानी के आगे वाली जगह को खाली छोड़कर उसमें ‘कुरसी को बिठा दिया। मूल कविता मे भलें ही बिल्ली हो या चिंकी। पिंकी हो या परी वक्त को देखते हुए हमने वहां ‘कुरसी को फिट कर रखा है।

आज कल जहां देखो वहां कुरसीखोरी चल रही है। पहले कई मोदीवादियों की कुरसी गई। कई को मिली। कनार्टक में यह खेल रोजाना का। राजस्थान में तो ऊफान पर। पिछले लंबे समय से आपणे राजस्थान में सत्तारूढ कांगरेस में कुरसी रानी.. बड़ी सयानी के सूर गूंज रहे है। कई दफे बाड़ाबंदी भी हुई। इस बाड़े में फलां के विधायक-उसमें ढीमका के। अब बीच का रास्ता खोजा जा रहा है। इसके तहत रायशुमारी के नाटक से लेकर व्यक्तिगत विचार जानने की बात की जा रही है। कुछ मंतरियों की छुट्टी होगी तो कुछ को पद मिलने की उम्मीद। किस की जाएगी-कौन पाएगा के कयास जोरों पर। इस बीच सियासी कुल कविता का वाचन जोरों पर ‘कुरसी रानी.. बड़ी सयानी..।

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