घरों को रौनक तो मिली..

पता तो कब का चल गया था। उस की गहराई दिन-ब-दिन गहराती अब नजर आई। जानने वाले जानते है कि ज्यों-ज्यों गहराई में जाया जाए, डूबने का आनंद कुछ और ही नजर आता है। मन करता है कि डूबते जाओ.. डूबते जाओ..। कहां वो लंबे-चौड़े लेख। कहां वो मोटे तगड़े निबंध और कहां दो-चार लाइनों में जिंदगी का पूरा सार।

जिंदगानी की पूरी हकीकत। चार लाइनों में कल आज और कल। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे। चार लाइनों के बारे में पढ़कर कई सज्जनों के जेहन में वरिष्ठ हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा का चेहरा घूम गया होगा। उन की चार लाइणे अमर हो गई। इस अमरत्व में उनकी घराळी का पूरा हाथ-पूरा साथ। चार लाइणों में वो अपनी पत्नी को जरूर याद करते हैं। घराळी के बिना उनकी हर पंक्ति अधूरी। खासियत की बात ये कि वो हंसी-ठठ्ठे-हास्य की फुलझडिय़ां छोडऩे के बावजूद खुद नही हंसते। उनका चेहरा देखने और चार लाइणे सुनने के बाद जो श्रोता-दर्शक हंसते हैं तो कविवर उन्हें भी मजाकिया अंदाज में सीरियस होकर टोकते हैं। कहते हैं-‘इसमें हंसणे की क्या बात है।

दर्शक और श्रोता में खासा अंतर हैं, मगर चलताऊ संस्कृति में सब चलता है। किसी की ललाट पे थोड़े ही लिखा है कि वो श्रोता है या दर्शक। श्रोता वो, जो सुनते हैं..। श्रोता वो, जो श्रवण करते हैं। संत-महात्माओं के प्रवचन सुनने के लिए हजारों की संख्या में श्रोता जुटते हैं। कई तो सुध-बुध खो देते हैं। नाचणे लग जाते हैं। घांटकी ऐसे हिलाते हैं मानों प्रवचन अमृत बन कर हलक में उतर रहा हों और पांडाल से निकलते ही सांसारिक माया में मगन। कई श्रोता-श्रोतियों का ध्यान प्रवचन की ओर कम। थ्हारी-म्हारी में ज्यादा। कवि सम्मेलनों में श्रोता जुटते हैं। मुशायरों में सुनने वालों का जमघट। सियासी रैलियों में पार्टी भगतों और जनता का जमावड़ा। अटलजी को सुनने के लिए हर कौम-संप्रदाय-धरम और पारटियों के लोग जुटते थे। कहते थे-‘उनकी चुटकियों में मजा आता है।

कोई कहता-‘उनका बेबाक और खरापन अच्छा लगता है। कोई उनके लच्छेदार भाषण का दिवाना तो कोई उनके मजाकिया लहजे का। दर्शक के माने देखने वाले। कोई सिनेमा का दर्शक तो कोई सर्कस का दर्शक। कोई फिल्मी या किरकिट की हस्ती आ जाए तो दिवाने-दिवानी दर्शक-प्रशंसकों की भीड़ को काबू करना मुहाल हो जाता है। भले ही वो हाथ हिला के निकल जाएं मगर दर्शकों की दिवानगी परवान पर। इन दोनों के इतर कई लोग दर्शक भी और श्रोता भी। देख भी लिया और सुन भी लिया।

मगर यहां ऐसा कुछ नहीं। जो कल था-वो आज है। कल की होंदा.. कोई नही जानता। जो कल देखा-जो आज सुन रहे है। उसे देख-सुन कर इस बात का एहसास और ज्यादा गहरा रहा है कि-‘दो लफ्जों की है, ये जिंदगानी.. या है मौहब्बत, या है कहानी..। इसके माने शोधकर्ता अपने शोध को सैंकड़़ों पन्नों में लिखते-बांचते हैं। कवि-शाइर उसे दो-चार-छह-आठ लाइनों में निपटा देता है। बड़ी से बडी समस्या.. बड़े से बड़े संकट को शब्दों के माध्यम से हलका कर देना बहुत बड़ी कला है। दर्द को कम करने की दवा है। चार पंक्तियों में सच्चाई बयान करना मन को छू जाता है।

आगे-पीछे जाने-भटकने की जरूरत नहीं। इन दिनों को ही ले लीजिए। अपने आप को तीसमार खान समझने वाले देशों को एक चिन्ने से विषाणु ने औकाद दिखा दी। बाहुबलि देश घुटनों पे आ गए। हम भी उसके लपेटे में। दर्द सहा। घरों में बंद हुए। भूखे-तिरसे रहे। तकलीफें झेली। अर्थ व्यवस्था चौपट। शिक्षा व्यवस्था छिन्न-भिन्न। पूरा देश बैचेन। आखी दुनिया संकट में। इसके बावजूद हम ने ‘कोरोना को हावी नही होने दिया। मानते है कि इसने दर्द दिए। अपनों से अपनों को छीना।

हजारों-लाखों की अर्थियां उठा दीं फिर भी हमने आपा नही खोया-ना खोएंगे। इतना कुछ होणे के बावजूद किसी ने गीत लिखे। किसी ने कविताएं लिखी। किसी ने लतीफे घड़े। किसी ने वीडियो बना के वायरल किए। थालिएं कूटी। शंखनाद किया। दीए जलाए। शेर लिखे। शाइरी की। इन सब में सच्चाई के साथ कोरोना का मिल जुल कर सामना करने का संदेश। हमारे एक मित्र हैं। नाम है मोहम्मद जाहीर। जोधपुर के सेवाभावियों में उनका नाम भी शुमार है। वो राजू कादरी के नाम से जाने-पहचाने जाते हैं। उन्होंने मुझे एक वीडियो भेजा। जिसमें से सच्चाई रिसती दिखाई-सुनाई देती है। वो शेर किसने घड़ा। चंद पंक्तियां किस ने कही। इसका तो पता नही मगर हर लाइन में सच्चाई। हरेक शब्द हकीकत से लदकद उसकी पंक्तियां कुछ यूं है..।
‘मौत के डर से सही,
जिंदगी को फुरसत तो मिली
सड़कों को राहत और
घरों को रौनक तो मिली,
कुदरत तेरा रूठना भी जरूरी था,
इंसान का घमंड टूटना भी जरूरी था,
हर कोई यहां खुद को
खुदा समझ बैठा था,
यह शक दूर होना भी जरूरी था
हथाईबाजों का कहना है कि इस सच्चाई को सामने रखकर हौंसला रखें। संयम बरतें। एका रखे। आपा ना खोएं। भारत जितेगा-कोरोना हारेगा।