समृद्धि की प्राप्ति के लिए कर्म, विकर्म, सुकर्म और श्रेष्ठ कर्म की परिभाषा समझें : गोविंद

धौलपुर। कस्बा के सरमथुरा गार्डन में तीन दिवसीय आध्यात्मिक सत्संग के दूसरे दिन वक्ता आचार्य गोविंद प्रसाद ने अपनी वाणी से जीवन का महत्व बताते हुए कहा कि आलस्य, मजबूरी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, भय और घृणा से किया गया कर्म पूजा नहीं है।

व्यर्थ या बुरी भावना से किए गए कर्म विकर्म या पाप कर्म कहे जाते हैं। ऐसा कार्य वरशिप के बजाय वॉरशिप बन जाता है। अर्थात कर्मक्षेत्र, युद्ध क्षेत्र में बदल जाता है। बुरे कर्म का फल दुख, अशांति, पीड़ा, रोग, शोक, कष्ट के रूप में भोगना पड़ता है।

उन्होंने कहा कि जीवन में सच्ची सुख-शांति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति के लिए कर्म, विकर्म, सुकर्म और श्रेष्ठ कर्म की परिभाषा जानना जरूरी है। हर कर्म के पीछे व्यक्ति की नीयत और भावना को समझना और उन्हें सकारात्मक बनाना आवश्यक है, ताकि हर कर्म का प्रभाव और परिणाम अपने लिए या दूसरों के लिए सुखदायी और हितकारी हो।

किसी भी कार्य को हम अपने और अन्य के कल्याण या विकास के लिए करते हैं, तो वह कार्य हमारे लिए ईश्वर की पूजा जैसा है। किंतु अनिच्छा, मजबूरी या अन्य के प्रति नकारात्मक सोच या बुरी नीयत से किया गया कर्म असल में विकर्म या पापकर्म कहलाता है। जो हमारे और दूसरों के लिए दुख, संताप और अधोगति का कारण बन जाता है।

उन्होंने श्रोताओं को जीवन का अर्थ बताते हुए कहा कि श्रेष्ठ कर्म या सुकर्म तो व्यक्ति और समाज में शुभ आशा, खुशी, प्रेरणा, उमंग, उत्साह, साहस, सद्भावना, आत्मबल, आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता को बढ़ाते हैं। इसके विपरीत, निकृष्ट या पाप कर्म से खुद की और अन्य की भी आंतरिक शांति, शक्ति, सुख और संतुष्टि नष्ट होती है। व्यक्ति के पाप कर्मों के प्रवाह को सुकर्म या श्रेष्ठ कर्म की धारा में बदलने का आधार है, उसकी व्यर्थ व नकारात्मक वृत्ति और भावनाओं को सद्भावना और शुभकामना में बदल देना।

ऐसे बदलाव के लिए व्यक्ति को भौतिक और भोगवादी मानसिकता से ऊपर उठने की जरूरत है। उसे आत्मा-परमात्मा के आध्यात्मिक ज्ञान, गुण और शक्तियों को आत्मसात करने की आवश्यकता है। श्रेष्ठ कर्मों की पूंजी जमा करना है तो मनुष्य को स्वार्थी और संकीर्ण सोच, विकारी व भोगवादी विचारों से दूर रहना उचित है। सकारात्मक गुण और दिव्य शक्तियों के स्रोत अंतरात्मा और परमात्मा के सुखद चिंतन में रहकर ही सांसारिक कर्तव्य करना आवश्यक है।

इसे भगवद्गीता में, ‘योगस्थ: कुरु कर्माणि कहा गया है। अर्थात कर्मक्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र में, नकारात्मक और सकारात्मक वृत्तियों के बीच हमारे चल रहे महायुद्ध में मनबुद्धि से परमात्मा के साथ योगयुक्त रहकर ही हमें सांसारिक कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए। पाप कर्म और उसके कष्टदायी फल से बचने के लिए, पुण्य कर्म में ही प्रवृत्त होना पड़ेगा।

लेकिन, श्रेष्ठ कर्म में बाधक देहाभिमान व आत्मिक निर्बलता है। इसकी पुष्टि महाभारत के खलनायक दुर्योधन से होती है। वह जानता था धर्म, अधर्म, पाप और पुण्य क्या है। लेकिन अधर्म व पाप कर्म से निवृत या धर्म व पुण्य कार्य में प्रवृत्त होने की उसके पास न तो शक्ति थी, न ही इच्छा।

आज लोग, पाप-पुण्य अथवा धर्म-अधर्म की परिभाषा जानते हैं। लेकिन सच्चे आत्मबोध या अध्यात्म शक्ति के अभाव से, सत्यधर्म व मानवीय मूल्यों को स्वयं में या समाज में पुर्नस्थापित करने में असमर्थ हैं। धौलपुर. सत्संग में प्रवचन करते आचार्य।

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