दो केले-बारा हाथ

जब ‘दो आंखें-बारह हाथ हो सकते हैं तो केले क्यूं नहीं। यदि किसी को केले अच्छे ना लगे तो उनकी जगह आम। बिस्कुट का अद्दा पैकेट। पन्नी में लिपटी दो रोटी और अचार। एक कचौरी और दो डबल रोटी या दो पुडी-साक को बिठाया जा सकता है। ऐसा हुआ तो सामग्री बदल जाएगी मगर हाथ बारा के बारा। याने कि बारह के बारह। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

‘दो आंखें बारह हाथ असल में एक हिन्दी फिलिम का नाम है जो आई-बाबा के जवानी के बखत आई थी। वो काली थी या रंगीन थी। फिलिम कित्ते पाठ की थी। हीरो कौन था। हीरोइन कौन थी। खलनायक कौन था। फिलिम में कितने गाने थे। फिलिम की ज्यादातर शूटिंग कहां हुई थी। अपन को फिलहाल इसके चक्कर में नही पडऩा। फिलहाल क्या, बाद में भी नही पडऩे का। ऐसा नहीं कि हम पुरानों की कदर नहीं करते। करते हैं-बाराबर करते हैं। करते आए हैं। कर रहे हैं और करते रहेंगे। पुरातत्व की धरोहरों का संरक्षण करना हमारा फर्ज है। ओल्ड इज गोल्ड। हम पुराने-पुरातन के फेर में इसलिए पडऩा नही चाहते कि ऐसा हो गया तो नई बात धरी रह जाएगी।

यहां नई बात को विरोध का सामना करना पड़ सकता है। विरोध के माने ये नही कि लोग सड़कों पे उतर कर नारे लगाने लग जाएंगे। विरोध के माने यह भी नही कि लोग धरना-प्रदर्शन शुरू कर देंगे। विरोध का मतलब यह नहीं कि लोग सड़कें जाम कर देंगे या रेलें रोक देंगे। आज कल विरोध प्रदर्शन के नाम पे यही सब कुछ तो हो रिया है। पानी नहीं आया-उतर जाओ सड़क पे। सफाई नही हुई-लगा दो जाम।

बिजली आने में देरी हुई-शुरू कर दो तोड़ाभांगी। कोई यह नही सोचता कि जिस बस को तुम जला रहे हो। सरकार ने उसे हमारे ही खून-पसीने की कमाई से खरीदा है। जिस इमारत में तोडफ़ोड़ की जा रही है, वह हमारे ही पैसों से बनी है। ऐसा करके हम खुदी का नुकसान करते है। हम ऐसे विरोध के हमेशा से ही विरोधी रहे हैं। विरोध करने के कई तरीके है। बापू गांधी हमें भतेरे अहिंसात्मक तौर-तरीके थमा के गए हैं। उन्हें अख्तियार कीजिए। कौन मना करता है। विरोध प्रदर्शन करना हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है। हमारे विरोध प्रदर्शन के माने ये नहीं कि पुरानेमल सा के समर्थक सड़कों पे उतर के-‘नई बात नौ दिन.. खींचतान के तेरा दिन.. के सुर बहा दे।

हथाईबाजों का कहना है कि ऐसा हो गया तो भी वो विरोधियों की सोच का सम्मान करेंगे। हम तो नई नस्ल को सिरफ ये बताणा चाहते है कि उस जमाने की फिल्में आज की चलताऊ फिल्मों पे बहुत भारी पड़ती थी। आज की फिल्मे हफ्ते-दस दिन की जब कि पुरानी फिलमें सदाबहार। एवरग्रीन। बारोमासी। कभी भी लगा-चला के देख ल्यो। एकदम तरोताजा लगेंगी। चाहे वो मुगले आजम हो या आवारा या कि साहब-बीवी और गुलाम अथव तीन देवियां। दो आंखें बारह हाथ पर हमारी जिज्ञासा ये कि फिलिम के निर्माता-निर्देशक ने आंखों को ही क्यूं चुना। वो चाहते तो फिलिम का नाम ‘दो कान-बारह हाथ रख सकते थे। कान की जगह दो पांव भी हो सकते थे। उनने जो नहीं किया, वो हम ने कर दिया तो कौन पांडु चालान बणा देगा। हमने दो को शरीर से ही बाहर निकाल दिया। जानने वाले जानते हैं कि आंखें निकाल कर केले घुसेड़े गए हैं, तो इसके पीछे भी कोई ना कोई गहरा राज होगा वरना हमें क्या पड़ी जो खामखा आंख मारें।

हथाईबाज पिछले लंबे समय से भाईसेणों को यह बोझ उठाते हुए देख रहे हैं। कोई केले को ढो रहा है-कोई नारंगी को। कोई सेव के बोझ तले दबा तो कोई आम-चीकू के। रोटी और डबलरोटी का बोझ भी उनपे। केले इत्ते भारी हो गए कि उठाने के लिए बारा (बारह) हाथ चाहिएं। नारंगी भी आठ-दस हाथों के बिना नहीं उठती। चीकू का भार ढोने के लिए कम से कम दस हाथ चाहिएं। सियासत में ऐसा होना या करना रिवाज बनता जा रहा है।

किसी नेते की बरसी-जयंती या जनमदिन पर उनके चंगु-मंगु सेवा कार्यों का उपक्रम करते हैं। उन्हें अपने सगे आई-बाबा का जनमदिन याद नही रहता पण राजनैतिक आकाओं का जनमदिन आने के ह$फ्तेभर पहले से ही कूकणे लग जाते है। अखबारों में विज्ञप्तियां पहुंचाते हैं। ऐसा करेंगे-वैसा करेंगे। कोई अस्पताल में रोगियों को फल देने का मंचन करता है-कोई गयों को रिजके की दो पुळियां खिलाकर परम गौ भक्त होने का दावा करता है। किसी का रूख कोढीखाने की ओर तो कोई वृद्धाश्रम की ओर।

कुछ तो अंदर ही नहीं जाते। कारण कि उनके बाबा वहां बिराजे हैं। किसी की आई वहां शरण लिए है। इनके सेवा कार्यों का वीडियो बनता है। फोटो सेशन होता है। हैरत तब होती है जब एक केला छह कार्यकर्ता उठा कर रोगी को समर्पित करते हैं। एक नारंगी को आठ कार्यकर्ता उठा कर कुष्ठरोगी को प्रदान करते है। उनके यह नाटक नौटंकी देख कर ही हमने फिलिम का नाम बदलने का उपक्रम किया। वो तो रील है। यहां तो रियल में ऐसा हो रहा है। वाह रे, सियासी सेवाभावियों। ऐसे सेवाभावियों को दूर से प्रणाम।

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