
- धन्न गयो फिर आ मिलै, त्रिया गयी मिल जाय।
- भोम गयी फिर सूं मिलै, गइ पत कबहूं आय।।
मनुष्य को गया हुआ धन फिर आ मिलता है। गयी हुई स्त्री भी मिल जाती है। धरती गई होती है तो वह भी फिर से मिल जाती है। लेकिन गयी हुई प्रतिष्ठा वापस कभी नहीं आती। (गतांक से आगे) नगर सेठ ना कहने के बाद अपनी हवेली लौट आया। जब चुगलखोरों को पता चला कि नगरसेठ ने कपड़ा नहीं होने का इनकार कर दिया है तो वे राजा के पास पहुंचे कि नगरसेठ के पास कपड़ा है, वे झूठ बोल रहे हैं। फिर भी राजा ने नगरसेठ पर विश्वास किया कि शायद उसके भंडार में वह कपड़ा इतनी बड़ी मात्रा में नहीं आया हुआ होगा। चुगली करने वालों की चाल तो खाली गई, लेकिन नगरसेठ को अपने मुंंह से हां की जगह ना निकलने का बड़ा दुख हुआ।
साथ ही वह घबरा भी गया। कारण, राजा यदि जांच कराए तो उसकी पोल खुल सकती थी, क्योंकि उसका भंडार कोई पाताल में तो था नहीं। ऐसी हालत में नगरसेठ का घबराना स्वाभाविक ही था। नगरसेठ के पुत्र ने जब अपने पिता को उदास देखा तो उसने कारण पूछा कि। तब नगरसेठ ने उसकेसामने सारी स्थिति प्रकट कर दी। सब जानकर नगरसेठ का बेटा बोला कि यह कोई बड़ी बात नहीं है, मैं आपकी सारी चिंता आज ही दूर कर दूंगा। जब रात हो गई तो नगरसेठ का बेटा अपने कपडों के भंडार में गया और उसमें से उस किस्म का सारा कपड़ा बाहर निकलवा कर गुप्त रूप से जलवा दिया। अब नगरसेठ की चिंता मिट गई थी। उसका धन गया सो तो गया, लेकिन मान भंग से वह बच गया।
अब राजपुरूष उसकी तलाशी करने वालों को चैन नहीं पड़ा था। वे एक बार फिर राजा के पास पहुंचे और बोले कि हम भी वणिज व्यापार करते हैं, हमें सब पता रहता है कि किसके पास क्या सामान आया है और कितना सामान आया है। नगरसेठ के पास वह कपड़ा है और पर्याप्त मात्रा में है। इस पर राजा ने फिर नगरसेठ को अपने महल बुलवाया और वही सवाल दुबारा उसके सामने रखा। इस बार नगरसेठ अकेला नहीं गया, अपने बेटे को भी साथ ले गया था। उसने अपने बेटे से कहा कि तुम राजाजी के सामने सारी बात बताते हुए सच्ची घटना साफ साफ कह डाल। तब नगरसेठ के बेटे ने सारी बात स्पष्ट करते हुए अपने भंडार का लाख रूपये का माल जला देने की घटना कह सुनाई। राजा सुनकर चकित रह गया। इस पर सेठ के बेटे ने कहा कि जावो लाख, रै वो साख। अर्थात लाख रूपया जाए तो जाए किंतु बात कायम रहनी चाहिए। राजा बड़ा प्रभावित हुआ। वह समझदार था। उसने नगरसेठ और उसके बेटे को सम्मान के साथ महल से विदा किया। नगरसेठ के परिवार की प्रतिष्ठा अब और भी बढ गई। (समाप्त)