‘बड़का-टू भी फ्लॉप

70

अगली खाई तो खूटी ही नहीं कि अगली और तैयार हो गई। असल में यह राजस्थानी भाषा में कही जाने वाली एक कहावत का हिन्दीकरण है। कहावत से आगे बढकर महा कहावत की ओर चलें तो खाई-खूटी बहुत पीछे छूट जाएगी। उसकी जगह ‘बड़को-बळियो-टू ले सकता है। ले क्या सकता है, समझो ले लिया। पहले एपिसोड में आका ने हड़काया था। दूसरे में निर्वाचन आयोग ने ठंड पिला दी। भाईसेणों ने इतनी जल्दी मचाई जैसे कल-परसों आएंगे ही नहीं, तभी तो दोनों दफे मुंह पिलका करना पड़ गया। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

हम तो ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि किसी के यहां किसी भी चीज की कमी ना रहे। हर घर में खुशहाली हो। थाली भरी रहे और चेहरों पे मुस्कान हो। चीज खूटने से पहले पीपा वापस भर जाए। यह तो थी अरदास। इसको कहाई-कहावत में लिया जाए तो अंदाजे बयां कुछ और ही होगा। इसका मतलब जो खाया वह गले में ही अटका हुआ है इसके बावजूद नया ‘कोर खिलाने या खाने की तैयारी। थाली सजी हुई है। भरी हुई है। भाईसेण आराम से जीम रहे हैं। मगर पुरसगारी करने वाले कुछ ज्यादा ही उत्साहित नजर आ रहे हैं। एक लाडू जीमा ही नही कि दो और परोस दिए। कबूली-पुड़ी थाली में रखी है, फिर भी रख दी। यह मंजर था भारतीय परंपरा के अनुसार बैठ के खाने के बखत का।

भारतीय पद्धति से जीमण जीमणे का आनंद ही कुछ और है। एक जमाने में शादी-ब्याह के खाने घरों के ‘डागळों पर हुआ करते थे। खुद की छत कम पड़ जाए तो पड़ोसियों की तैयार। इस छत पे औरतें-उसपे पुरूष। नीचे दरियां या चांदनी बिछाई जाती। थालियों के साथ कटोरियां और गिलासें सजाई जाती। कई जगह ‘बाजोट पर थालिएं सजाई जाती थी। भाईसेण आराम से बैठकर खाने का लुत्फ उठाते। मनुहार की परंपरा भी निराली। कई लोग एक थाली में सामूहिक रूप से खाना खाते। पहले एक-दूसरे की मनुहार करते। देवीलाल मांगीलाल को और ओमजी भोमजी को चक्की खिलाते। मुंह में चक्की है तो भी ठूंस दी जाती। इसे आगे की खाई तो खूटी नही से जोड़ा जा सकता है।

अब आते हैं राजस्थानी भाषा के एक और चावे शब्द पर जिस का उपयोग दिन में पांच-दस बार तो ही हो जाता है। राज्य का एक बंदा दिन के पांच दफे उसका उपयोग करे तो आंकड़ा कहां पहुंचेगा। इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। उसके भी पर्यायवाची शब्द है। हमने प्राथमिक और उच्च प्राथमिक क्लास के दौरान हिन्दी द्वितीय में जो पढ़ा, उसमें पर्यायवाची शब्द भी शुमार थे। हम ने प्रार्थना पत्र लिखे। लेख लिखे। विलोम शब्द लिखे। खाली स्थानों की पूर्ति की। उस बखत के रट्टे आज भी याद हैं। एक शब्द के और भी शब्द बनते हैं। मसलन कमल का नीरज। आग का अग्नि। पान का तांबूल।

उसी प्रकार ‘बळापो का ‘बड़को। इसके माने किसी बात को लेकर जल्दबाजी दिखाना। उतावली मचाना। ऐसा शो करना मानो सुबह होगी ही नही। अरे भाई, टे्रन चलने में दो दिन बाकी है और आप ने आज ही टैक्सी बुलवा कर सामान रख दिया। उतावली मचाना अथवा जल्दबाजी दिखाना मानवीय प्रवृति है मगर ज्यादा ‘बड़का दिखाना उचित नही है। इसके लिए भी ‘जल्दी का काम शैतान का वाली कहावत आम है। ऐसी उतावली कोई उतावळ चंद-जल्दीराम दिखाए तो समझ में आती हैं। शासन-प्रशासन के लोगों को ‘बड़का बळे और मुंह की खाए तो जग हंसाई होणा स्वाभाविक है।

हथाईबाजों ने पिछले माह के अंतिम सप्ताह में ‘बड़के से फैली सनसनी शीर्षक से छपी हथाई में उतावली दिखाने के अंजाम का जिक्र किया था। हुआ यूं कि राज्य के शिक्षामंत्री गोविन्द सिंह डोटासरा ने डोटा मार दिया कि स्कूलें इत्ती तारीख से खुल जाएंगी। मंत्रिमंडल की बैठक का हवाला देकर उन्होंने इस बारे में ट्विट किया था। उनके इस बयान के बाद अभिभावकों में जोरदार बैचेनी फैल गई। इधर कोरोना की तीसरी लहर की आशंका और उधर स्कूलें खुलने का ऐलान। कई अभिभावक तैयारी में जुट गए। बच्चों ने भी पिछले डेढ साल से खूंटी पे लटके बैग-बस्तों की सार संभाल शुरू कर दी। इस बीच सीएम सर ने साफ कर दिया कि मंत्रिमंडल की बैठक में ऐसा कोई फैसला नहीं हुआ। बल्कि एक समिति बनाई गई जिस की रिपोर्ट के बाद फैसला लिया जाएगा। उन्होंने इस ‘बड़केबाजीÓ के लिए डोटासरा को हड़काया भी।

उसका धुआं उठ ही रहा था कि शिक्षाविभाग ने ‘बड़का-टू का लोकार्पण कर दिया। राज्य के छह जिलों में इन दिनों गांवों की सरकार चुनने की प्रक्रिया ऊफान पर है। इन स्थानों पर आचार संहिता लागू है, फिर भी विभाग ने शिक्षकों के तबादलों की जंबों लिस्ट जारी कर दी। अरे भाई, कम से कम आचार संहिता हटने की बाट तो जोही होती। ऐसा क्या बड़का बळा जो सूची जारी कर दी। यह काम दो-तीन हफ्ते बाद भी हो सकता था। सरकार के इस कदम पर निर्वाचन आयोग ने बेडिएं डाल दी। पूरी सूची निरस्त कर दी। पहले बड़का वन फ्लॉप शो साबित हुआ-इस बार बळापा-टू। लगता है शासन-प्रशासन को ‘धीरे-धीरे रे मना.. धीरे सब कुछ होय.. वाला ज्ञान अर्जित करने की जरूरत है।

यह भी पढ़ें-पगे लागणां पे बट्टा