श्रम या बे-शर्म

श्रम तो खैर श्रम है। इस का ना तो कोई मुकाबला कर पाया है, ना कर पाएगा। श्रम और श्रमिकों की वजह से देश चल रहा है- दुनिया चल रही है। हम कितने ही आधुनिक क्यों हो जाएं मानखों की जगह मशीनों का निर्माण मशीनें नही करती। उन्हें बनाने के लिए भी मानखों की बुद्धि और श्रम काम में आता है। शरम तब आती है जब बे-शरम लोग श्रम को लजाने से बाज नहीं आते। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
श्रम पर श्रम करने से पहले पांडुओं की पलटन को बदनामी से बचाना जरूरी है। औरों की करतूतों को देखते हुए एकबारगी ऐसा लगता है मानों बद से बदनाम बुरा। वो बदनाम इसलिए हैं कि उनकी जमात का एक बड़ा हिस्सा कौर-दो कौर जीमता है। कहते हैं ना कि एक मछली पूरे समंदर को गंदा कर देती है। हम इस पे विश्वास नहीं करते। जिसे करना है-करे। जिसे कहना है-कहे। जिसे लिखना है-लिखे। जिसे सुनना है-सुने। हमने कहावत की सच्चाई परखने के लिए एक मछली को पानी की छह बाय छह की कुंडी में डाला और एक माह बाद देखा तो भी पानी ठीकसर ही दिखा। जब एक मछली कुंडी के पानी को एक माह में गंदा नही कर पाई तो उसकी क्या बिसात कि अथाह समंदर को गंदा कर दे। इसके लिए खालीपीली मछलियों को बदनाम नही किया जा सकता। करोड़ों-करोड़ जलजीव मिल कर समंदर को गंदा करते हैं। यहां भी जीव बदनाम। दुनिया भर की नदियों का पानी समंदर में समाता है। नदियों में अगणित गंदे नालों और फैक्ट्रियों-कल-कारखानों का पानी समाहित होता है। वो पानी समंदर में मिलता है। उस गंदगी के लिए महज मछलियों को दोषी ठहराना उचित नहीं। मछलियों से ज्यादा मानखा समाज इसके लिए दोषी है। कल को तो समंदर के खारे पानी के लिए भी जल की रानियों की तरफ अंगुली उठा दी जाएगी। ऐसा नही है। क्यूंकि कहावत चल पड़ी तो चल पड़ी। मछली बदनाम हो गई तो हो गई। उस पर लगा टेग हटने वाला नहीं। आगे चल कर ऐसे टेग कई जमातों पे टांग दिए गए। पांडु पलटन भी उनमें शुमार।
भ्रष्टाचार करने-पनपाने और फैलाने की बात आते ही खाकीवर्दी संप्रदाय को सबसे पहले कटघरे में खड़ा किया जाता है। एक एजेंसी पिछले लंबे समय से सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार का सर्वे करती रही है। हर बार पुलिस महकमा टॉप पर रहता है। पिछले कई सालों से उसका यह स्थान बरकरार है। पुलिस हफ्ता वसूली करती है। पुलिस की निगहबानी में अवैध दारू बिकती है। जिस्म फरोशी होती है। जुआं-गुब्बा चलता है। मटके चलते हैं। पुलिस की दोस्ती से भाईगिरी होती है। दुकान-मकान-भूखंड खाली करवाए जाते हैं। पुलिस वाले हलकी धारा को कड़ी धारा में और तगड़ी धाराओं को हलकी धारा में बदलने में माहिर। वो चाहे तो एफआईआर में किसी का नाम घुसेड दे। चाहे तो गायब कर दें। वो कहते हैं-‘मेरे योग्य कोई सेवाÓ और सेवा करवाओ तो सेवा शुल्क जरूरी। पांडु फोकट का खाते हैं। फोकट की पीते हैं। वर्दी का दुरूपयोग करते हैं। निर्दोष को कू टते हैं। अपने इन्हीं गुणों-अवगुणों के कारण पूरी जमात बदनाम है। सच तो यह है कि पांडुओं का निचला वर्ग ज्यादा खाऊ पिउ-चाऊ है मगर बदनाम ऊपरी वर्ग भी। ऊपरी वर्ग के भी कभी कभार खा-पी लेने की खबरें चौड़ी आई मगर निचला वर्ग इसमें ज्यादा माहिर है। अगर ऊपरी वर्ग से सेटिंग करनी है, तो निचले वर्ग की कड़़ी ढूूंढनी पड़ती है। कुल जमा पांडु जमात पर ठप्पा ठुका हैं तो ठुका है।
हथाईबाज पिछले दिनों से पांडुओं की कुरसी हिलती देख रहे हैं। राजस्थान में पिछले दिनों से जो परतें खुल रही हैं, चौकाने वाली है। पुलिस वाले कोरोनाकाल में मुस्तैद होकर ड्यूटी को अंजाम दे रहे हैं। दिन-रात सड़कों पे पहरे दे रहे हैं। जनता से मिनी लॉकडाऊन और कफ्र्यू की पालना करवा रहे हैं। बगैर काम बाहर निकलने वालों से समझाइश कर वापस घर में भेज रहे हैं। जरूरत पडऩे पर कड़ाई भी बरत रहे हैं। और दूसरी तरफ उनके रिकॉर्ड को तोडऩे की कोशिश की जा रही है।
हथाईबाजों ने देखा कि पिछले दिनों घूसखोरी की पकड़मपकड़ाई में जो चेहरे सामने आए उनमें पांडु कम आरएएस-पटवारी-डीटीओ-आरटीओ-निरीक्षक-राजस्व अधिकारी और आईएएस की संख्या ज्यादा थी। सभी की घूस राशि भी लाखों में। ऐसा लगा मानों सब ने एका कर के घूस रेट बढा दी हो। लाखों से कम बात ‘इज नहीं। दलाली भी मोटी-तगड़ी। ताजा मामला श्रम आयुक्त की बंधी का। आरोप है कि वह तीन लाख रूपए की माहवारी बंधी वसूलता था। उसका मातहत अधिकारी और दलाल यह रकम उस तक पहुंचाया करते थे। बदले में वो श्रमिकों से संबंधित शिकायतों पर कार्रवाई करने से आंखें मींच लेता।
श्रम और श्रमिक जयते। श्रम-मेहनत जिंदाबाद-श्रमिक जिंदाबाद। इस वर्ग की हर तकलीफ समस्या का निवारण होना चाहिए मगर श्रम आयुक्त ने ऐसा नही किया। उल्टे घूस लेकर कार्रवाई करने से कतराता रहा। यह श्रम आयुक्त की बे-शरमाई नही तो और क्या है। उसे बे-शर्म आयुक्त कहना ज्यादा ठीक रहेगा।

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