जुरमाने के बदले मास्क

कोई माने तो ठीक, नही माने तो उनकी मरजी-हमारा काम सलाह देना है। जानते हैं कि सलाह मानने वाला कोई नहीं, फिर भी यह सोच कर परोस रहे हैं कि शायद अक्ल दाढ निकलती दिख जाए। शायद किसी को ‘माने और ‘जुरमाने के बीच का फरक नजर आ जाए। वरना जहां इतने डंडे हैं वहां एक डंडा और सही, पर वहां जिस डंडाराम को खड़ा किया गया है, वह किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

माने के अपने मायने हैं। मायने के अपने अर्थ और मतलब हैं। यह जरूरी नहीं कि हर मायने के मायने समझ में आ जाएं, ऐसा है तो बताइए कि राज्य सरकार और राजभवन में जो चोंचे लड़ाई जा रही हैं उसके मायने क्या। बताइए सरकार विधानसभा सत्र बुलाने पर अड़ी हुई क्यूं है। बताइए राज्यपाल ने सत्र बुलाने संबंधी-फाइल वापस क्यूं लौटा दी। एक बार लौटी तो सोचा कि दूसरी बार मंजूर हो जाएगी। दूसरी बार वापस आई तो सोचा कि तीसरी बार मंजूर हो जाएगी। तीसरी बार भी आ गई तो सवाल और सस्पेंस बरकरार कि अब क्या होगा। हम-आप तो खैर आम आदमी हैं और जानने वाले यह बात बखूबी जानते हैं कि आम आदमी को दो बखत की रोटी के जुगाड़ से भी फुरसत, नही मिलती। उन्हें ना सोचने की फुरसत ना कहने की। खुद सियासी पंडित भी हैरत में कि इस रस्साकस्सी का नतीजा क्या निकलेगा। इधर राजभवन अड़ा हुआ-उधर सरकार। बीच में हम मास्कधारी लोग। हम हमेशा की तरह इस बार भी पिस रहे हैं।


कई बार ईश्वर से शिकायत करने का मन करता है। करते भी हैं। कर भी चुके हैं कि आप ने हमें खांचों में फिट क्यूं किया। इस बात की शिकायत नही कि आप ने गोरे-काले क्यूं बनाए। इस बात का मलाल नही कि आप ने किसी को लंबू-किसी को टेणी और किसी को ठीकसर क्यूं बनाया। हमें इस बात का अफसोस नहीं कि नीली छतरी वाले ने किसी को मोटू और किसी को लूकड़ी क्यूं बनाया। शिकवा इस बात का कि मानखों में वर्ग भेद की दीवार खड़ी काहे को की। ये अमीर वर्ग-ये गरीब वर्ग और ये मध्यम वर्ग। सेठ देवीलाल शाह चणे खावे तो लोग कहते हैं- ‘शौक से खा रहे हैं। गरीब खाए तो कहेंगे-‘बापड़ो भूखां मरता खा रियो है।

मरते मध्यम वर्ग के लोग हैं। ना निगलते बनता है न उगलते। अमीर के शौक और गरीब की मजबूरी के बीच मध्यम वर्ग पिसता रहा है। पिस रहा है और अब भी नही चेता तो आइंदा भी पिसता रहणा है। अमीर को कुछ कहो तो उनकी सेहत पे फरक पडऩे वाला नहीं। गरीब की आदत पड़ चुकी है सुनने की। दिक्कत हम-आप जैसे मध्यम वर्ग के लोगों के सामने आती है। अब तो परेशानियां झेलने की आदत सी पड़ गई। अब क्या माने और क्या जुरमाने।


कई दफे ऐसा लगता है मानों आदम कौम और जुरमाने एक-दूसरे के पक्कम-पक्के एकतरफा दोस्त बन गए हों। पक्कम-पक्के और एकतरफा दोस्त को लेकर दो धाराएं फूटती नजर आती है। यह तो अपने आप में विरोधाभास है। पक्कम-पक्के भी और एकतरफा भी। यह तो चक्के पे चक्का, चक्के पे गाड़ी जैसी स्थिति। यह तो स्वर्गीय अमर सिंह जैसी स्थिति। भिखारी भीख मांग रहा है और नाम धनराज। दो धाराएं फोडऩे के पीछे अपने कारण। आदम दूर रहना चाहता है मगर जुरमाना हैं कि मानता नहीं। आदमी बिचारा कहां-कहां भागे। किस-किस से भागे। कब तक भागे। जुरमाना लट्ठ ले के पीछे पड़ा है। हम तो पहले से ही झुके हुए है-तिस पर जुरमाने पे जुरमाने ठुक रहे हैं।


यदि कोई गांगत बाचणे को कहे तो भांत-भांत के जुरमाने पूरी आदम कौम के पीछे पड़े हुए हैं। चांदी की छडी वाले भले ही डंडाराम के डंडे पे चुर्र.. र्र.. घुस्स चला दें। हम-आप को उनसे कोई नही बचा सकता। जहां देखो वहां जुरमाने का डंडा। हम यह नही कहते कि अंगुली टेढी मति कीजिए। अंगुली क्या अंगूठा और पूरा पंजा टेढा कर लीजिए। हमारी सलाह यह कि एक बार फिर गांधीगिरी दिखाएं। जैसे हाथों हाथ हेलमेट अभियान चलाया था, वैसे जुरमाने के बदले मास्क अभियान शुरू किया जा सकता है। इससे गलतीमल पर बोझ भी नही पड़ेगा और मास्क नाक पे पड़ जाएगा। जैसे हेलमेट जान का रक्षक वैसे मास्क।


हथाईबाज देख रहे हैं कि इन दिनों मास्क के नाम पर कहीं-कहीं जोरदार ज्यादतियां भी हो रही है। दुकानदार अकेला बैठा है और मास्क हटा दिया तो नगर निगम वाले लपक लेंगे। पुलिस वाले तो नाक सूंघते रहते हैं। सब की नजर नाक पर। एक चालान पर सौ दो सौ रूपए का भचीड़। जित्ता कमाया नहीं उत्ता पांडु ले गए। झारखंड में तो बिना मास्क पकड़े जाने पर पूरे साल की कमाई गई। वहां एक लाख के जुरमाने और दो साल की सजा का प्रावधान। हम-आप जैसे से कोई गलती-लापरवाही हो जाए तो गए गत्ते से। लिहाजा यह सलाह कि कुछ समय के लिए जुरमाने के बदले मास्क अभियान शुरू के देखा जाए। वरना निगम और पुलिस कर्मियों का आतंक बढता रहेगा।