ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पहले भी हो चुका है। इसे अगर यूं कहें कि ऐसा हमेशा होता रहा है तो भी गलत नहीं। इससे दो कदम आगे बढें तो एक अलग ही अंदाज नजर आएगा। पहली बार और हमेशा दोनों साइड में हो जाएंगे। फिर हम उसे- नाम तुम्हारा-काम हमारा से संबोधित कर सकते हैं। ऐसा करना उनका (अना)अधिकार जो बनता जा रहा है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
अधिकार के आगे अना लिखकर उसे ब्रैकेट में बंद करने के अपने कारण है। कारण का खुलासा करने को कहा जाए तो जवाब अपने-अपने हो सकते हैं। ये अपने कारण जाहिर करेंगे-वो अपने। इन के अपने कारण हो सकते हैं, उनके अपने। एक हिसाब से ऐसा होना ठीक है। यदि सवाल के जवाब एक जैसे मिल जाएं तो ऐसा लगता है मानो बिहार-यूपी टोटका आजमाया गया हो। इसमें भी सवाल ये कि टोटका तो टोटका होता है। टोटके पर क्षेत्रवाद का टेग टांगना उचित नही है। उसका जवाब ये कि हम जिस टोटके की बात कर रहे हैं वो अलग है। यह वो नही जो आप समझ रहे हैं। बल्कि वो जो हम बता रहे हैं। यूपी-बिहार में सामूहिक नकल होती है। परीक्षा के दिनों में वहां नकल मरवाने के ठेके लिए जाते हैं लिहाजा सारे परीक्षार्थियों के उतर एक जैसे। इसीलिए बिहार-यूपी ब्रांड टोटके का जिक्र किया।
टोटकों के अपने वर्ग है। टोटकों की अपनी जमात है। टोटकों के अपने खांचे हैं। एक जमाने में इन पर काला जादू का एकाधिकार हुआ करता था। कईजन इसपे विश्वास करते हैं, कई की नजर में फगडों के अलावा कुछ नहीं। आटे के पुतले बनाकर उसमें आल पिन चुभाने के किस्से चौडे आ चुके हैं। लाल कपड़ा बांधी मटकी चौक-चौराहों पर पडी देखी जा सकती है। दालों और नींबू-मिर्ची के जरिए टोटके किए जाने की अफवाहें उड़ती रहती है। उनका उतारा करने के अपने टोटके। आटे के पुतले और कटे नींबू से आगे की बात करे तो श्मशान भूमि में टोटके किए जाने की हवा आती रही है।
टोटकों पर पत्रवाचन करने का मतलब यह नहीं कि उन्हें महिमामंडित किया जा रहा है या कि उनकी जानकारी दी जा रही है वरन ये कि यहां टोटकों का सिर्फ नाम है। पेपर रिडिंग के पीछे असल में उन तौर-तरीकों को उजागर करना है जो यहां-वहां आजमाए जाते हैं। अना को ब्रेकेट में कैद करना उनमें से एक। ब्रेकेट खोल कर अना को अधिकार में शामिल करें तो बनेगा- अनाधिकार। इसके माने अनाधिकृत। इसके माने जिस पे आप का अधिकार नहीं फिर भी जता रहे हो या कर रहे हो तो उसे अनाधिकृत रूप से कब्जा करना कहा जाता है। कोई चाहे तो ना-जायज और अतिक्रमण भी कह सकता है।
कई बार लगता है कि ऐसा करना लोगों का, खासकर सरकारी विभागों का। इनमें से भी खास करें तो सरकारी अधिकारियों का शौक और अधिकार बनता जा रहा है। इस मामले में नेते भी कम नहीं। मौका मिलने पर नेते लोग यहां-वहां कब्जा करने से बाज नहीं आते। कई लोग इसे-‘इसकी टोपी-उसके सिरÓ रखना कहते हैं। कहने पे किसी के पहरे नही। हक और अधिकार के नाम पर कोई कुछ भी कह सकता है। उन्हें ही देख ल्यो। इन दिनों वो दिखाई नहीं दे रहे, ना उनकी आवाज सुनाई पड़ रही है। सुनाई कैसे पड़ती। राहुल बाबा बोलें तो सुनाई देवे ना। आजकल कई लोग खुद नहीं बोलते वरन चिडिय़ा से बुलवाते हैं। ट्विट किया और मामला नक्की। यह काम भी वो खुद नहीं करते। इसके लिए पगारी भाई लगा रखे हैं। किस पे क्या कहना है। किस मुद्दे पे क्या राय जतानी है, ट्विट किया और मामला नक्की। इससे ज्यादा हलकी बात क्या हो सकती है कि भाईसेण किसी को श्रद्धांजलि देने के लिए समय नहीं निकाल पाते। ट्विटर पर श्रद्धासुमन अर्पित किए और छुट्टी। हो सकता है कल इससे भी ज्यादा हैरतनाक समय आ जाए। लोग मन ही मन में श्रद्धासुमन अर्पित करके इतिश्री कर लें। ऐसा भी ना करें तो कौन क्या कर लेगा। बात (अना) की होते-होते ना पर आ गई। उसे वापस अना पर ले जाएं तो ठीक रहेगा। अनाधिकृत और अतिक्रमण पर ले जाना बेहतर रहेगा। उसी से ‘नाम ‘तुम्हारा-काम हमारा निकलेगा।Ó इसके माने इस की टोपी-उसके सिर।
हवा उदयपुर से आई। वहां के अफसरों ने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए जारी बजट को अपनी सुविधाओं पर फूंक दिया। आदिवासियों के लिए राज्य सरकार से बजट मिलता है-केंद्र सरकार से मिलता है मगर उसका उपयोग विभाग के अधिकारी अपनी सुविधाओं पर कर देते है। इनमें पुलिस-कलेक्ट्रेट-वन विभाग सहित करीब दर्जन भर महकमें शामिल हैं। अफसरों ने अपने दफ्तर में एसी लगवा लिए। बंगले और सर्किट हाऊस की मरम्मत और रंग-रोगन करवा लिया। विभागों के विश्रामगृह सुधरवा लिए। वाहनों पर पईसे फूंक दिए। नाम आदिवासी क्षेत्रों और आदिवासियों के कल्याण का और काम अफसरों की सुविधाओं का। आदिवासियों की टोपी-कलेक्ट्री पर। काम तुम्हारा-काम तुम्हारा।