कमाने का नहीं.. काम आने का..

‘कमाने का अंगरेजीकरण किया जाए तो ऐसा लगेगा मानो ‘काम आने लिखा गया हो। यही टोटका ‘काम आने पर लागू होता है। अगरचे ‘काम आने को रोमन अंगरेजी में लिखा जाए तो ‘कमाने नजर आएगा।

कौन किस पर अमल करता है या कर रहा है, यह उस पर निर्भर। सब एक ही रास्ते पे चलें, जरूरी नही है। कोई इधर जाएगा-कोई उधर। कोई इस रास्ते पे तो कोई उस रास्ते पे। कोई तठस्थ भी रह सकता है। कोई अम्मा या घराळी का आज्ञाकारी। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

कई लोगों को ‘अम्मा पे हैरत हो रही होगी और कई लोगों को ‘घराळी पे। बात शुरू कहां से हुई थी और पता नही कहां जा के थमेगी। इसके बीच अम्मा और घराळी कहां से आ गई। बात घर-परिवार की होती या कि मेरा घर अथवा मेरी मां या कि बीवी विषय पर पत्रवाचन हो रहा होता तो बात समझ में आती। जहां तक अपना खयाल है, यदि शोधार्थियां को ‘बीवी विषय पर पेपर तैयार करने को कहा जाए तो अधिकांश लोग मना कर देंगे।

भाई सच्चाई लिख के ‘बट्टिडे थोड़े ही खाणे हैं। हो सकता है कई लोग पत्र तैयार करते समय सुरक्षा की गारंटी की मांग कर डालें। भाई, हम लिखा-पढी तो सॉलिड कर देंगे मगर पहले हमें हमारी सुरक्षा की गारंटी चाहिए। शोध पत्र तैयार करते बखत भी और तैयार हो जाए उस के बाद भी। पता नहीं कब, किस वक्त क्या हो जाए। हो सकता है कई लोग आउट ऑफ कोर्स कह के पेपर का बहिष्कार कर दें।

रही बात मां की, तो इसमें कोई लोचा नहीं। बचपने में माट्साब ने खूब लेख-निबंध लिखवाए थे। कई तो आज भी मुंडे याद है। मेरा गांव से लगा कर गाय और मां पर कभी भी, कुछ भी लिखवा लो। हम आधीरात को भी तैयार हैं। मां के आगे लेख टुच्चे लगते हैं। मां की महिमा अपरंपार है। क्यूं कि नंबर का सवाल है लिहाजा निबंध हो या प्रार्थना पत्र या कि विलोम शब्द अथवा पर्यायवाची शब्द लिखने तो पडेंग़े।

जो लोग अम्मा या घराळी का सुन कर ललाट पे लकीरें डालें बैठे हैं उन्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नही है। ज्यादा चिंता इस वास्ते लिखा कि अम्मा से तो हम बचा लेंगे। अम्मा खुद एक दफे गुस्सा करके गले लगा लेगी पण घराळी से बचाने की गारंटी कोई नही ले सकता। इस मामले में मुसाफिर अपनी जोखिम पे यात्रा करेगा। जो कुछ होगा-फेस तो करना पड़ेगा।

सवाल ये कि कमाने और काम आने में से किसी एक रास्ते को चुनने के लिए कहा जाए तो आप कौन सा रास्ता चुनेंगे। ऐसे में उनका जवाब होगा-‘कोई सा भी नहीं। अम्मा/घराळी ने कह रखा है कि काम से सीधे घर आना वरना टांगे तोड़ दूंगी। यदि आज्ञा की अवहेलना हो जाए तो अम्मा रहम कर सकती है। बाकी की गारंटी नहीं..।

यह तो उदाहरण भर था। सच्चाई ये कि आज का समय काम आने का है। वैसे, हम भारतीय और भारतवंशी साल में 365 दिन एक-दूसरे के काम आते हैं। हम तो दीगर मुल्कों के दुख-सुख में उन के साथ खड़े नजर आते हैं। सहयोग हमारी खासियत है। सद्भाव और समभाव हमारी विरासत है जिसे निरंतर आगे ले जाने की जरूरत है। इस जरूरत को हम-आप पूरी भी कर रहे हैं। इतना कुछ करने-धरने के बावजूद आह्वान इस लिए किया जा रहा है कि लोगबाग संकट के इस कोरोनाकाल में भी ‘मिनखपणे को लजाने से बाज नही आ रहे। भतेरे लोगों ने इंसानियत फिर ताक पे रख दी है।

वो ऐसे समय में भी फायदा उठाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। दवाइयां ऊंचे दामों में। जीवन रक्षक दवाओं की कालाबाजारी। मेडिकल उपकरणों का काला धंधा। खून और प्लाजमा के बदले वसूली। रेमडेसिविर इंजेक्शन वन-टू-का फोर में। मास्क से लेकर पीपीई किट के ज्यादा दाम। आम जरूरत का सामान महंगे दामों पर। आटा महंगा। दाल-चावल महंगे। घी को देखे मुद्दत हो गई। तेल भी महंगा कर दिया। मिर्च-मसाले ऊंचे दामों पर। चाय-शक्कर-गुड़ महंगे। ज्यादातर लोग संकटकाल का फायदा उठाने में लगे हैं।

इसकी पलट में भतेरे लोग पीडि़त मानव और मानवता की सेवा में जुटे हैं। कोई रोटी-बाटी की व्यवस्था कर रहा है तो कोई रसोई की कच्ची सामग्री के किट बांट रहा है। कहीं मास्क और काढा वितरण तो कहीं प्राण वायु के लिए दिल खोल के मदद। वो भी इंसान हैं जो कोरोना की वजह से मौत की आगोश में समाए लोगों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। इस समय में जितनी सेवा की जाए, कम है। संकट गुजर जाएगा-बातें और यादें रह जाएंगी। कमाने के लिए जिंदगी पड़ी है-यह समय काम आने का है। एक-दूसरे के साथ खड़े हों। कोई अपने आप का अकेला ना समझे। हम सब उसके साथ हैं। अपने आप पे यकीन रखें। समय कड़ा और कड़वा जरूर है, पण निकल जाएगा। हम जितेंगे-कोरोना हारेगा।

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