
सोचा क्या था और हो क्या गया। सोचा था कि आज टेस्ट चेंज कर लेंगे। लीक से हटके बात करेंगे। विषय बदल देंगे मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ-वैसा कुछ नहीं हुआ। बे-वफा तेरा यूं मुस्कराना-भूल जाने के काबिल नहीं है.. की सुर लहरियों ने कदम रोक दिए। कुछ देर रूक कर आगे बढने की कोशिश की मगर सफल नही हुए। बाड़े से बेवफा के मुस्कराने के सुर गंूजते हैं तो बगीचे में कैसे गंूजते होंगे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे। ऐसा हमारे साथ ही नही हुआ वरन हरेक के साथ हो चुका है। हो रहा है और आइंदा भी होगा। इंसान सोचता क्या है और हो क्या जाता है। जो सोचें वो जो जाए अथवा हो ही जाए, ऐसा जरूरी नही है। बाय द वे या बाय दा लक हो जाए तो बात कुछ और है वरना हर किसी को नही मिलता यहां..प्यार जिंदगी में..।
कई बार ऐसी गलतफहमी होती है जैसे मौसम और नेतों के बीच कोई एमओयू हो रखा है। कई दफे गलतफहमी सहीफहमी में बदलती दिखाई देती है। बाजवक्त असमंजस वाली स्थिति। समझ में नही आता कि उसे गलतफहमी माने या सहीफहमी समझें। दिल कुछ और कहता है-दिमाग कुछ और। फिर सच्चाई तो यह है कि हरेक का सोचा पूरा हो जाए तो मेहनत-संघर्ष-नसीब और नीली छतरी वाले को कौन पूछे। सोच लिया पूरा हो गया और मामला नक्की। अव्वल तो ऐसा हो ही नही सकता-होने लग जाए तो देश-दुनिया में हाहाकार मचना तय समझो। बवाल-बवंडर-युद्ध-महायुद्ध-गृहयुद्ध की स्थिति भी बन सकती है।
पूछो-ऐसा क्यूं, तो जवाब मिलेगा-ऐसा यूं कि यदि जैसा आप ने सोचा, ठीक वैसा मांगीलाल ने सोच लिया। जैसा आप ने सोचा, ठीक मंगतू खान ने सोच लिया। जिस को पाने की हसरत आप ने की, ठीक वैसी हसरत गुल बहादुर सिंह ने की। जैसी चाहत आप की-ठीक वैसी स्टीफन की तो पंगा होना तय। सोच एक-चाहत एक-हसरत एक और पूरी करवाने वाले भतेरे तो गली-गुवाड़ी युद्ध जैसी स्थिति होणी तय समझो। खुदा ना करे बात बढ जाए, ऐसा हुआ तो बवाल का स्तर बढ भी सकता है। गुवाड़ी युद्ध वार्ड स्तर से शहर। शहर से तालुका। तालुका से जिला। जिले से अंतर जिला। अंतर जिला से राज्य स्तरीय। राज्य स्तरीय से राष्ट्र और राष्ट्र से अंतर राष्ट्रीय स्तर पर मान लो किसी ने व्हाइट हाउस में रहने की हसरत पाल ली, वही चाहत दो दर्जन देशों के -दो करोड़ लोगों ने पाल ली, तो क्या होगा। मामला गली का और बना दिया अंतरराष्ट्रीय, इससे बेहतर तो यही है कि घंटाघर का मसला घंटाघर तक ही रहे। ना अंटशंट सोचना ना चाहत पूरी होने के ख्वाब पालने।
हम ने भी सोचा था कि आज बाड़े-साड़े से दूर रहेंगे। बहुत हो बाड़ाबंदी। ज्यादा खिंचाई की तो पता नहीं लोग क्या समझ बैठें। जिसे जो सोचना है सोचे-जिसे दो समझना है समझे। हमें उससे कोई लेना देना नहीं। चेंज करने की इस वास्ते सोची कि बहुत हो गया। खूब लिख लिया। सुबह देखें तो बाड़ा-शाम को देखें तो बाड़ा। सोचा कि आज नया तूफानी करते हैं मगर बात फिर बाड़े पे आकर थम गई। भाई लोग नही चाहते कि राग दूसरी छेड़ी जाए लिहाजा उन्होंने एक बाड़े से निकले ‘बे-वफा यूं तेरा मुस्कराना… भूल जाने के काबिल नहीं है.. के साथ खुद का मसाला भी भुरका दिया।
राज्य में इन दिनों चल रही विधायकों की बाड़ाबंदी पर हर जागरूक नागरिक की नजर है। जनता सब कुछ देख रही। समझ रही है। समय-समय पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर रही है। उसके पास सब का हिसाब। समय आने पर चूकता कर भी दिया, आगे भी कर देगी। फिलहाल बाड़ों की बहार पर ना चाहते हुए भी चासे। दिल जल रहा है। आहें निकल रही है-और वहां बाड़ा-बाड़़ा खेल चल रहा है। पहले दो बाड़े थे-अब तीन हो गए। अरे ओ जनता.. कितने बाड़े हैं रे..। कहीं से आवाज आ रही है-बाड़े के दो आगे बाड़े.. बाड़े के दो पीछे बाड़े.. आगे बाड़े.. पीछे बाड़े.. बोले कितने बाड़े..। लोगों का सुझाव है कि जनता की सुविधा के लिए बोर्ड लगा दिए जाएं-बाड़ा मार्ग। सपोज करो-कोई अपने विधायक के घर जाकर पूछे कि साब या मैमसाब कहा है और नौकर जवाब दे-बाड़े में, तो? सवाल इस पर भी-कौन से वाले बाड़े में ? कुछ का सुझाव है कि बाड़ों से बाहर आने के बाद विधायकों को अनुभव की बुकलेट छपवा कर अपने क्षेत्र में वितरित करवानी चाहिए। कुल जमा बाड़ों के चासे जोरों पर। मन के एक कोने में घुप अंधेरा। मरघट सी खामोशी। लोकतंत्र के तमाशे का मातम। हमारे वोटों की मैयत। हमारे पैसों की बरबादी का नंगा नाच। सोचा भी नही था कि ऐसे दिन देखने पड़ेंगे।