
कोई माने या ना माने – वो तो इसमें भी अपना बड़प्पन मानते है। कहते नहीं लेकिन मन ही मन में तो गुनगुना रहे होंगे – बलिहार हमारी, जो नारे नहीं लगाए। देश देख रहा है। देशवासी भुगत रहे है। वो साथ तो हैं पर नारे नहीं लगा रहे। हमारा हाथ उनके साथ अथवा गुमराहों तुम तोडफ़ोड़ करो, हम तुम्हारे साथ है सरीखे नारे उछालने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ी कि जो लोग तोड़-फोड़, हिंसा और आगजनी कर रहे है उनको उनका पूरा समर्थन है। तन से ..मन से और धन से.. तभी तो निंदा करने में शरम आ रही है। ऐसा लग रहा है मानो उनके कुकृत्यों पर लानत डाल दी तो खुद उनकी नागरिकता पर आंच आ जाएगी। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
समझने वाले सिर्फ एक पेरेग्राफ में समझ गए होंगे कि आगे क्या होने वाला है.. आगे क्या कहा जाने वाला है। अपने यहां येड़ो की कमी नहीं तो समझदार भी अगणित हैं। समझदारों को कुछ कहने सुनाने की जरूरत नहीं। एक जमाने में कहा जाता था कि समझदार को इशारा काफी है। अब वो बात भी नही रही। समझदार बिना इशारा किए ही समझ जाते हैं। समझदारों को समझाना पड़े तो काहे के समझदार। इसकी पलट में येड़ों को कितना ही समझा द्यो, वो येड़े ही रहणे है। करत.. करत.. अभ्यास के जड़मति होत सुजान.. वाली बातें कब की हवा हुई। जो लोग देश विरोधी कृत्य कर रहे हैं उन्हीं को देख ल्यो। बड्डेसर ने समझा दिया। मोटे सर ने पुचकार दिया। भाई.. तुम्हारे हितों-अधिकारों पे कोई आंच नहीं आणी है फिर भी वो उछले जा रहे हैं। जहां तक अपना ख्याल है। दूसरा पेरा पढ़ कर तो सारे लोग समझ गए होंगे कि हम क्या कहना चाहते हैं। इतना पढपुढाने के बावजूद कोई नहीं समझे तो हमें उन्हें समझाना भी आता है। अच्छी तरह से समझाना आता है।
देश में इन दिनों नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के नाम पर जो कुछ हो रहा है। जो कुछ करवाया जा रहा है। वह लानत योग्य है। उस पर जितनी लानत डाली जाए कम है। समझदार और सुधि पाठको ने ‘जो कुछ हो रहा है और जो कुछ करवाया जा रहा है पर गंभीरता से गौर किया होगा। दोनों के अपने मायने हैं। दोनों के अपने अर्थ है। जो हो रहा है वह हो तो रहा है, करवाया भी जा रहा है। करवाया भी में से ‘भी हटाकर ‘ही बिठा दिया जाए तो बने ‘करवाया ही जा रहा है। यह कहना और लिखना गलत नहीं। ना लिखना गलत ना कहना। जो लोग देश में हिंसा फैला रहे हैं। जो लोग नागरिकता कानून ओर एनसीआर की एबीसीडी भी नहीं जानते। ऐसे लोगों के लिए एबीसीडी का इस्तेमाल करना एबीसीडी की तौहीन है। वो लोग इन दोनो का ककहरा भी नहीं जानते। उन्हें व्याख्या-परिभाषा तो दूर, इन का अर्थ तक पता नहीं, और विरोध कर रहे हैं। जाहिर हैं कि उन्हें इसके लिए उकसाया जा रहा है। जिन लोगों ने इन्हें पंक्चर से चिपकाए रखा। जिन लोगों ने इन्हें गेंहू पीसने की चक्की में जोते रखा। जिन लोगों ने इन्हें कमठा-मजदूरी से दूर नहीं होने दिया। जिन लोगों ने इन्हें ठेलों और थ्री व्हीलरों से अलग नहीं होने दिया। हम दम ठोक कर कहते हैं कि काम तो काम होता है। मेहनत कर के कमाना नीली छतरी वाले की पूजा उपासना से कम नहीं। पर गंभीर सोच की बात ये कि ये लोग उनकी वोट बैंक कब तक बने रहेंगे। गंभीर सोच की बात ये कि ये लोग अपनी नस्लों को विरासत में पंक्चर चेपने की फुटपाथी जगह या ईट-गारे की तगारी ही देकर जाएंगे। ऐसा हुआ तो नई नस्लें आप को कोसेंगी जैसे आप अपनी विरासत देख कर उन्हें कोस रहे हैं। दुनिया कहां थी और कहां चली गई। कहां थी और कहां जा रही है और तुम पत्थर बाजी और आगजनी से उपर नहीं उठ रहे हो। सवाल ये कि तुम कब तक उन सियासी दलों के हाथों नाचते रहोगे, जो अब तक तुम्हारा शोषण करते आए हैं और कर रहे हैं।
देश ने सीएए और एनआरसी के नाम पर एक वर्ग विशेष द्वारा की गई हिंसा और आगजनी देखी। नागरिकता संशोधन बिल संसद ने पास किया और राष्ट्रपति ने उस पर मोहर लगाई। संसद लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर है। हिंसा और आगजनी उस मंदिर का अपमान है। कुछ राजनीतिक दल उत्पातियों को प्रोत्साहन दे रहे हैं। उपद्रवियों के सिर पे उनका हाथ है। देश भर में इतना बवाल मचा मगर ना तो कांग्रेस ने उस की निंदा की ना और किसी क्षेत्रीय दल ने। निंदा करते तो भी मान लेते कि तुम्हे समाज की चिंता है। निंदा करना तो दूर उलटे तुम भ्रम और झूठ फैला रहे हो। यह ठीक नही है। ये पब्लिक है सब जानती है। उसे हिसाब करना अच्छी तरह आता है।