कोरोना की रूदाळी.. बंद करो-बंद करो

पहले तो लग ही रहा था, अब पक्कम-पक्का हो गया कि थोड़े दिन के लिए वापस बंदर बनना जरूरी है। बापू गांधी ने बंदरों के जो किरदार तय किए थे, उन्हें निभाने के दिन आ गए है। हमें तीनों बंदरों की भूमिकाएं एक साल पहले से ही निभानी शुरू कर देनी चाहिए थी। ऐसा हो जाता तो शायद इतनी पीड़ा नहीं भुगतनी पड़ती। चलो, जो तब ना किया वो अब सही। आज से और अभी से ही सही। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

कई लोग इस भरम में है कि गांधी बाबा तीन बंदर पाला करते थे। सच्चाई इससे परे। दरअसल उन्होंने बंदरों के चित्रों का उपयोग एक सकारात्मक संदेश देने के लिए किया था। एक बंदर बुरा मत कहो का संदेश दे रहा है। दूसरा बुरा मत देखो का और तीसरा बुरा मत सुनो का। एक बंदर के हाथ मुंह पर। दूसरे के आंखों पर और तीसरे के कान पर। बंदर के दो पांव मल्टीपरपज। वो हाथों का काम भी करते हैं और पांवों का भी।

कई लोगों ने इस पे भी बखेड़ा करना चाहा मगर खड़ा होने से पहले ही शांत हो गया। उन का कुतर्क था कि चार टांगों वाले बंदर भला कान-नाक और मुंह हाथों से कैसे ढक सकते हैं, उनके हाथ तो होते ही नही है। उनको जवाब यह मिला कि वानरराज चलता है तो टांगे चार और बैठता है-खाता है या खुजली करता है तो उसकी ऊपर वाली दो टांगे हाथ का काम करती है। उन्हीं हाथों का उपयोग बुरा मत कहो-सुनो-देखो का संदेश देने के लिए करवाया गया।

देश-दुनिया में कपिराज ही ऐसे जिनावर हैं जिन्हें प्रकृति ने यह नायाब तोहफा दे रहा है वरना गाय-भैंस-गधा-घोड़ा-ऊंट या और किसी चौपाये की दे टांगे हाथों का काम करती हैं, तो बता द्यो। आपने किसी गाय को बैठे-बैठे अपनी अगली वाली दो टांगों से रिजके की पुळी पकड़ कर खाते हुए देखा। कोई घोड़ा बैठे-बैठे अपनी आगे वाली दो टांगों से चने की दाल से भरी बाल्टी पकड़ ले, तो बताइयो।

बंदरों का इतिहास खासा पुराना रहा है। इतिहासविदों का कहना है कि हमारे पुरखे बंदर थे। मानव सभ्यता का विकास होने से पहले उनका जीवन बंदरों की तरह व्यतीत होता था। नंग धडंग़ घूमना। कंद-मूल-घास-फूस-पेड़-पौधे और पत्तियां खा कर उदर की पूर्ति करना और जहां जगह मिली पड़ जाना। धीरे-धीरे मानव सभ्यता का विकास हुआ। जिसका परिणाम हम-आप है। कई का कहना हैं कि हमारे पूंर्वज आदम-हौव्वा के जाए थे।

फि लहाल अपन को इस बहस में नही पडऩा। हम तो इतना जानते हैं कि रामजी के कारण अमर हुए वानरराजों का मानखा जमात से रिश्ता हजारों-हजार साल पुराना है-तभी तो बाबा गांधी ने अपने ‘त्रिसंदेश में उनको प्रचारक बनाया। दूसरा ये कि ऐसा करना मजबूरी भी था। अन्य चौपाए की टांगों का उपयोग मुंंह-कान-आंख ढकने के लिए किया भी नहीं जा सकता। लिहाजा यह भूमिका बंदरों को देनी जरूरी हो गई।

सवाल ये कि उस संदेश से कितनों ने प्रेरणा ली। जवाब में अगले-बगले झांकने की जरूरत नही है। ना मुन्नाबाजी दिखाने की जरूरत है ना नकलें मारने की। सच तो यह है कि बाबा गांधी का संदेश महज संदेश बन के रह गया। किताबों के पन्नों में सिमट के रह गया। इसपे भी बहस। जब किसी को बेतुकी-बेहुदी बहस ही करनी है तो क्या विषय और क्या सब्जेक्ट।

वो कहते हैं बाबा के संदेश हमारे लिए नहीं बांदरों के लिए है, तभी तो उन्होंने कपिराजों को चुना। रही बात मानखों की, तो भाई कई दफे बुरा कहना-सुनना-दिखना भी पड़ जाता है। ऐसों से बहस करना दीवारों से सिर टकराने के बराबर है। हमारे हिसाब से इन दिनों तीनों बंदरों के संदेशों पर तनिक परिवर्तन के साथ गौर करने की जरूरत है। संदेश के आगे ‘कोरोना का रोना चस्पा कर दो बस। ऐसा करने से संदेश हो जाएगा-‘कोरोना का रोना मत देखो-मत सुनो-मत कहो।

संदेश में बदलाव करने की जरूरत इस वास्ते पड़ी कि आज चारों ओर इसी का रोना चल रहा है। खबरिया चैनल्स में देखो तो इसका रोना। अखबारों में देखो तो इस का रोना। चार जने मिल जाए तो इसका रोना। जित्ता कोहराम कोरोना नही मचा रहा उससे ज्यादा रोना मीडिया और सोशल मीडिया मचा रहे है। लिहाजा इसकी चर्चा ‘इ नही करनी।

सकारात्मक सोच रखो। घर-परिवार के बीच मस्ती-मजाक करो। भूले-बिसरे खेलों को वापस ताजा करो। एक-दूसरे को फोन करके अच्छी-सुट्ठी बाते करों। एक-दूसरे को हिम्मत दो। हम है ना की भावना को सार्थक करो। मालिक पर भरोसा रखो। ईश वंदना करो। जो जी में आए करो मगर कोरोना का रोना नही रोणा है तो नही रोणा है। तभी हम जितेंगे-कोरोना हारेगा।

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