
आगे बढऩे से पहले यह साफ किए देते हैं कि हम कानून और नियमों की पालना के पक्षधर थे। पक्षधर हैं और रहेंगे। हम ने यह नियम-कानून बखूबी पालन किया। गलती से मिस्टैक हो गई हो तो कह नहीं सकते, वरना हम समाज के जागरूक पहरूए। लेकिन जहां ना तो धार-ना रफ्तार। जहां ना तो दस से बारह की रफ्तार ना फर्राटाखोरी। इसके बावजूद नाके डाल कर वसूली करना ठीक नहीं है। लोग ताने मार रहे हैं कि हाईवेज की खीज गलियों में उतर रही हैं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
किसी बात का खुलासा करने का मतलब यह नहीं कि स्पष्टीकरण या कि सफाई दे रहे हैं। अव्वल तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं जो स्पष्टीकरण देने की जरूरत पड़े भविष्य में ऐसा कुछ हुआ तो जवाब देना बखूबी आता है। जानने वाले जानते है कि तर्क वितर्क के साथ-साथ जवाब देने में हथाईबाजों का कोई सानी नहीं। हथाई पर सिर्फ पंचायती या थ्हारी-म्हारी नहीं होती वरन हर गंभीर मसलों मुद्दों पर सार्थक चर्चा होती है। शहर पनाह के कई इलाके ऐसे है जहां आधी आबादी बैठकर प्रमाणपत्र बांटती हैं।
खुद के घर में क्या हो रहा है, उसकी खबर भले ही ना हो, गली-गुवाड़ी की सारी खबरें उनके पास। वहां से लूण-मिरच लगा कर आगे सप्लाई की जाती है। अब नारियों के साथ नर भी इस काम में लग गए। कई मुद्दों पर तो उन्होंने आधी आबादी को पीछे धकेल दिया। लोग पीठ पीछे उन्हें पंचायती अंकल-जासूस अंकल और नींबू का सत अंकल सहित अन्य उपाधियों से विभूषित करते हैं। चांतरियों की पंचायती और हथाईयों में यही फरक हैं। हथाईयों पर गंभीर चर्चे के साथ समस्याओं का समाधान खोजा जाता है। खुलासे होते हैं। वहीं खुलासा यहां किया जा रहा है कि कोई हमारी साफगोई को स्पष्टीकरण ना समझ बैठें।
अब सवाल ये कि जब किसी ने पूछताछ नहीं की, तो सफाई देने का क्या तुक। इसका खुलासा भी धरते इ कर दिया गया था। हम जानते हैं कि सवाली खान इस पर सवाल उठा सकते हैं। समाज में भतेरे लोग ऐसे हैं जिनको फट्टे में टांग अड़ाने की लत पड़ी हुई है। हर मामले में पंचायती करना उनकी आदत में शुमार। भले ही लोग उन पर ”नाच ना जाने आंगन टेढा का मुलम्मा चढ़ा दे। उनकी सेहत पे कोई फरक पडऩे वाला नहीं। आंगन टेढा हो या खड्डेदार। आंगन सीमेंट का हो या सफेद पत्थर का, वो फुदकते रहणे हैं। उनके लिए ना नियमों की अहमियत, ना कानून की। कोई कहावत कहे तो कहे। कूके तो कूके।
पर हथाईबाज जिन गली-कूंचों की बात कर रहे हैं। जिन नियमों की बात कर रहे हैं वो अपनी जगह पे। ये गलियां ये चौबारे कल भी थे-आज भी है और बरसों-बरस तक रहेंगे। यह बात दीगर है कि पहले गलियां सूनी रहा करती थी, आज आबाद हैं। पहले साफ सफाई रहा करती थी, आज सूगलवाड़ा पसरा नजर आता है। पहले गलियों में इक्का-दुक्का साईकिले नजर आती थी, आज मुहाने तक बाईक्स ही बाईक्स।
पहले छोटे-छोटे मार्ग सपाट रहा करते थे, आज दुकानदारों का सामान आधी सड़क पर बिखरा नजर आता है। पहले शहरपनाह के बाजारों में भीड़ कम नजर आती थी, अब सुबह से शाम तक रेलमपेल रास्ता पार करनेे में घंटा लग जाता है, ऐसे में नाकों पे इतना गुस्सा आता है कि मन ही मन में गालिएं देते हैं। पांडुओं को कोसते हैं । उन्हें बद्दुआएं देते हैं। एक तो पहले से ही परेशानी तिस में वो यमदूत की तरह आ खड़े हुए।
जहां नाका लगाना है वहां तो लगाते नहीं और आ गए कभी पुंगलवाड़ा तो कभी नवचौकिया। कभी सर्राफा बाजार तो कभी लखारा। कभी गुलाब सागर तो कभी उम्मेद चौक। कभी-अजय चौक तो कभी बंबे पे। उनसे पूछो-यहां तुम्हारा क्या काम है। पर जानने वाले जानते हैं कि यहां कमाई की कमाई और टारगेट का टारगेट। शहरवासी बिचारे सीधे साधे कि विरोध भी नहीं करते मगर कहते जरूर हैं ”मेरी गलियों में तुम्हारा क्या काम है…।
हथाईबाजों का इशारा उन पांडुओं की तरफ जो शहर के ठेठ भीतरी क्षेत्रों में नाका लगा कर हेलमेट की चैकिंग के नाम पे उगाही करते हैं चालान। बनाते हैं। यार, इन क्षेत्रों में बाईक्स की स्पीड ज्यादा से ज्यादा पांच-सात किमी प्रति घंटा। कभी टैक्सी आवे तो कभी हाथ ठेला। कभी पैदल यात्रियों का जत्था तो कभी खरीददारों की भीड़। दुपहिया वाहन वाले टींटींटीं… करते रहें। यातायात रेंगता नजर आता है। ऐसे में पांडु नाका लगा के बैठे दिल जाएं तो मन ही मन में वही उफनता है जिसे शीर्षक बना के लटका दिया गया।
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